नैषध-चरित-चर्चा/१०—श्रीहर्ष की कविता
श्रीहर्ष को अद्भुत कवित्व-शक्ति प्राप्त थी; इसमें कोई संदेह नहीं । परंतु उन्होंने नैषध-चरित में अपनी सहृदयता का विशेष परिचय नहीं लिया। उनका काव्य आदि से लेकर अंत तक विलक्षण अत्युक्तियों और दुरूह कल्पनाओं से जटिल हो रहा है। जिस स्थल में, जिसके विषय में, जिस-जिस क्लिष्ट कल्पना का उन्होंने प्रयोग किया है, उस स्थल में, उस-उस कल्पना का मन में उत्थान होना कभी-कभी असंभव-सा जान पड़ता है। फिर, आपकी कविता ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी है कि उसका भाव सहज ही ध्यान में नहीं आता । कहीं-कहीं तो आपके पद्यों का अर्थ बहुत ही दुर्बोध्य* है । हमारा
- देखिए, दमयंती से राजा नल अंधकार का वर्णन करते हैं—
ध्वान्तस्य वामोरु ! विचारणायां वैशेषिकं चारु मतं मतं मे;
औलूकमाहुः खलु दर्शनं तत् क्षम तमस्तत्वनिरूपणाय ।
इसकी टीका नारायण पंडित ने कोई दो पृष्ठों में की है। जो 'वैशेषिक दर्शन' के कर्ता के नामादि से परिचित हो, वही अच्छी तरह इसके आशय को समझ सकता है। यह अभिप्राय नहीं कि इन कारणों से श्रीहर्षजी का काव्य हेय हो गया है। नहीं, इन दोषों के रहते भी, वह अनेक स्थलों में इतना रम्य और इतना मनोहर है कि किसी-किसी पद्य का अनेक बार मनन करने पर भी फिर-फिर उसे पढ़ने की इच्छा बनी ही रहती है। कोई-कोई स्थल तो इतने कारु- णिक हैं कि वहाँ पर पाषाण के भी द्रवीभूत होने की संभावना है। तथापि, फिर भी यही कहना पड़ता है कि इनकी कविता में विशेष सारल्य नहीं । कहीं-कहीं, किसी-किसी स्थल में, सरलता हुई भी तो क्या ? सौ में दो-चार श्लोकों का काठिन्य वर्जित होना, होना नहीं कहा जा सकता । श्रीहर्षजी को अपनी विद्वत्ता प्रकट करने की जहाँ कहीं थोड़ी भी संधि मिली है, वहाँ उन्होंने उसे हाथ से नहीं जाने दिया यत्र-यत्र न्याय, सांख्य, योग और व्याकरण आदि तक के तत्त्व भर दिए है।
अतिशयोक्ति कहने में श्रीहर्ष का पहला नंबर है। इस विषय में कोई भी अन्य प्राचीन अथवा अर्वाचीन कवि आपकी बराबरी नहीं कर सकता । अतिशयाक्ति ही के नहीं, आप अनुप्रास के भी भारी भक्त थे। नैषध-चरित में अनुप्रासों का बहुत ही बाहुल्य है । इस कारण, इस काव्य को और भी अधिक काठिन्याप्राप्त हो गया है। अनुप्रासादि शब्दालंकारों से कुछ आनंद मिलता है, यह सत्य है ; परंतु सहृदयताव्यंजक और सरस स्वभावोक्तियों से जितना चित्त प्रसन्न और चमत्कृत होता है, उतना इन बाह्याडंबरों से कदापि नहीं होता । तथापि अनुप्रास और अर्थ-काठिन्य के पक्षपाती पंडितों ने "उदिते नैषधे काव्ये क माघः कच भारविः" कहकर किरात और शिशुपालवध से नैषध को श्रेष्ठत्व दे दिया है। अनुप्रास और अतिशयोक्ति आदि में उन काव्यों से नैषध को चाहे भले ही श्रेष्ठत्व प्राप्त हो, परंतु और बातों में नहीं प्राप्त हो सकता । स्वभावानुयायिनी और मनोहारिणी कविता ही यथार्थ कविता है। उसी से आत्मा तल्लीन और मन मुग्ध होता है। जिनको ईश्वर ने सहृदयता दी है और कालिदास के काव्यरस को आस्वादन करने की शक्ति भी दी है, वही इस बात को अच्छी तरह जान सकेंगे। कालिदास का काव्य साद्यंत "सर्वागीणरसामृतस्तिमितया वाचा"* से परिपूर्ण है। अस्वाभाविक वर्णन का कहीं नाम तक नहीं । समस्त काव्य सरस, सरल और नैसर्गिक है । हम नहीं जानते, देवप्रसाददत्त कवित्व-शक्ति पाकर भी श्रीहर्ष ने क्यों अपने काव्य को इतना दुरूह बनाया ? यदि पांडित्य प्रकट करने के लिये ही उन्होंने यह बात की तो पांडित्य उनका उनके और और ग्रंथों से प्रकट हो सकता था। काव्य का परमोत्तम गुण प्रसाद-गुण- संपन्नता है, उसी की अवहेलना करना उचित न था। नैषध के अंतिम सर्ग में श्रीहर्ष लिखते हैं—
- यह श्रीहर्ष हो की उक्ति है।
ग्रन्थग्रन्थिरिह क्वचिरक्वचिदपि न्यासि प्रयत्नान्मया
प्राज्ञंमन्यमना हठेन पठिती माऽस्मिन्खलः खेलतु ।
श्रद्धाराद्धगुरुश्लथीकृतदृढग्रन्थिः समासादय-
त्वेतत्काव्यरसोर्मिमजनसुखव्यासजनं सज्जनः।
भावार्थ—पंडित होने का दर्प वहन करनेवाले दुःशील मनुष्य इस काव्य के मर्म को बलात् जानने के लिये चापल्य न कर सकें—इसीलिये मैंने, बुद्धिपुरःसर, कहीं-कहीं, इस ग्रंथ में ग्रंथियाँ लगा दी हैं । जो सज्जन श्रद्धा-भक्ति-पूर्वक गुरु को प्रसन्न करके, उन गूढ़ ग्रंथियों को सुलझा लेंगे, वही इस काव्य के रस की लहरों में लहरा सकेंगे।
वाह ! इतना परिश्रम आपने दो-चार दुर्जनों को अपने काव्य-रस से वंचित रखने ही के लिये किया ! अस्तु । प्राचीन पंडितों के विषय में इस तरह की अधिक बातें लिखकर हम किसो को अप्रसन्न नहीं करना चाहते।
श्रीहर्षजी के ऊपर के श्लोक से यह ध्वनित होता है कि प्रासादिक काव्य करने की भी शक्ति उनमें थी, परंतु जान-बूझ- कर उन्होंने नैषध-चरित में गाँठें लगाई हैं । लगाई तो हैं, किंतु 'कचित्-कचित्' लगाई हैं, सब कहीं नहीं । परंतु सारल्य 'कचित्-कचित्' ही देख पड़ेगा, गाँठे प्रायः सर्वत्र ही देख पड़ेंगी।
कालिदास के अनंतर जो कवि हुए हैं, उनके काव्यों की
समालोचना करते समय जर्मनी के प्रोफ़ेसर वेबर ने तद्विषयक
अपना जो मत* प्रकट किया है, उसका अनुवाद हम यहाँ
पर देते हैं। वह कहते हैं --
"इस प्रकार के काव्यों में वीर-रसात्मकता से संबंध क्रमशः छूटता गया है, और अच्छे-अच्छे शब्दों में शृंगार-रसात्मक वर्णन की ओर प्रवृत्ति बढ़ती गई है। कुछ दिनों में, धीरे- धीरे, भाषा ने अपनी सरलता को छोड़कर बड़े-बड़े शब्दों और दीर्घ समासों का आश्रय लिया है। अंत में यहाँ तक नौबत पहुँची है कि नवीन बने हुए सारे काव्य कृत्रिम शब्दाडंबर-मात्र में परिणत हो गए हैं। कविता का मुख्य उद्देश बाहरी शोभा, टेढ़ी-मेढ़ी अलंकार और श्लेषयोजना, शब्द-विन्यास-चातुरी इत्यादि समझा जाने लगा है। काव्य
- This latter (the other Kavyas) abandons more and more the epic domain and passes into the erotic, lyrical, or didactic descriptive field; while the language is more and more overlaid with turgid bom- bast, until at length, in its later phases, this artificial epic resolves itself into a wretched jingle of words. A pretended elegance of form and the performance of difficult tricks and feats of expression constitute the main aim of the poet; while the subject has become a purely subordinate consideration, and merely serves as the material which enables him to display his expertness in manipulating the language. History of Indian Literature.
का विषय गौण हो गया है; उसका उपयोग कवि लोग इतने
ही के लिये करने लगे हैं, जिससे उसके बहाने उनको अपना भाषा-चातुर्य प्रकट करने का मौक़ा मिले।"
नैषध-चरित में वेबर साहब के कहे हुए लक्षण प्रायः मिलते हैं।
डॉक्टर रोयर नाम के एक और भी संस्कृतज्ञ साहब की राय में नैषध-चरित बहुत क्लिष्ट और नीरस काव्य है। पडित ईश्वरचंद्र विद्यासागर की भी सम्मति नैषध के विषय में अच्छी नहीं। संस्कृत-साहित्य पर उनकी एक पुस्तक बँगला में है। उसके कुछ अंश का अनुवाद नीचे दिया जाता है --
"श्रीहर्ष में कवित्व-शक्ति भी असाधारण थी, इसमें संदेह नहीं। किंतु उनमें विशेष सहृदयता न थी। उन्होंने नैषध-चरित को आद्योपांत अत्युक्तियों से इतना भर दिया है, और उनकी रचना इतनी माधुर्य वर्जित लालित्य-हीन, सारल्य-शून्य और अपरिपक्क है कि इस काव्य को किसी प्रकार उस्कृष्ट काव्य नहीं कह सकते। पूर्व-वर्णित रघुवंश, कुमारसंभव, किरातार्जुनीय और शिशुपालवध-नामक काव्य-चतुष्टय के साथ इसकी तुलना नहीं हो सकती। श्रीहर्ष की अतिशयोक्तियाँ इतनी उत्कट हैं कि उनके कारण श्रीहर्ष के काव्य को उपा-देयत्व न प्राप्त होकर हेयत्व ही प्राप्त हुआ है।"
तथापि, जैसा हम ऊपर कह आए हैं, इस काव्य में अनेक
उत्तमोत्तम और मनोहर पद्य भी हैं। कहीं-कहीं मार्मिक सहृ-
दयता के भी उदाहरण दिखाई देते हैं। रसनिष्पत्ति भी किसी-
किसी स्थल-विशेष में ऐसी हुई है कि हृदय आनंद-सागर में
डूब-सा जाता है।
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