नैषध-चरित-चर्चा/१—प्राक्कथन

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नैषध-चरित-चर्चा
(१)
प्राक्कथन

"उदिते नैषधे काव्ये क्व माघः क्व च भारविः?"[१]

संस्कृत के पाँच प्रसिद्ध महाकाव्यों के अंतर्गत नैषध-चरित के नाम से प्रायः सभी काव्य-प्रेमी परिचित होंगे। जिन्होंने संस्कृत का ज्ञान नहीं प्राप्त किया, जो केवल हिंदी ही जानते हैं, उनके भी कान तक नैषध का नाम शायद पहुँचा होगा। आज हम इसी काव्य के विषय की चर्चा करना चाहते हैं।

संस्कृत का साहित्य-शास्त्र दो भागों में विभक्त है—एक श्रव्य काव्य, दूसरा दृश्य काव्य। अभिनय अर्थात् नाटक-संबंधी जितने काव्य हैं, उनको दृश्य काव्य कहते हैं। परंतु उस विभाग से यहाँ हमारा प्रयोजन नहीं। हमारा प्रयोजन यहाँ श्रव्य काव्य से है। [ १० ]श्रव्य काव्य तीन प्रकार का है—गद्य-पद्यात्मक, गद्यात्मक और पद्यात्मक।

गद्य-पद्यात्मक काव्य को साहित्यज्ञ चंपू कहते हैं—जैसे रामायण-चंपू, भारत-चंपू इत्यादि । हिंदी में इस प्रकार का कोई अच्छा ग्रंथ नहीं ; हाँ, लल्लूलाल के प्रेमसागर को हम यथा-कथंचित् इस कक्षा में सन्निविष्ट कर सकते हैं।

गद्यात्मक काव्य के दो विभाग हैं—आख्यायिका और कथा । उदाहरणार्थ—कथासरित्सागर, कादंबरी, वासवदत्ता इत्यादि । हिंदी के उपन्यास इसी विभाग के भीतर आ जाते हैं।

पद्यात्मक काव्य त्रिविध हैं—कोषकाव्य, खंडकाव्य महाकाव्य।

कोषकाव्य उसे कहते हैं, जिसके पद्य एक दूसरे से कुछ भी संबंध नहीं रखते—जैसे आर्या-सप्तशती, अमरुशतक, भामिनीविलास इत्यादि ।

खंडकाव्य महाकाव्य की अपेक्षा छोटा होता है, और प्राय: सर्ग-बद्ध नहीं होता । यदि सर्गबद्ध होता भी है, तो उसमें आठ से अधिक सर्ग नहीं होते । इसके अतिरिक्त और विषयों में भी उसमें महाकाव्य के लक्षण नहीं होते। मेघदूत, ऋतुसंहार, समयमातृका इत्यादि खंडकाव्य के उदाहरण हैं।

नैषध-चरित की गणना महाकाव्यों में है। दंडी कवि ने, अपने काव्यादर्श ग्रंथ में, महाकाव्य का जो लक्षण लिखा है, वह हम यहाँ पर उद्धत करते हैं— [ ११ ]कोई देवता, कोई राजा अथवा सद्वंशसंभूत कोई अन्य व्यक्ति, जिसका वर्णन किसी इतिहास अथवा किसी कथा में हुआ हो, अथवा न हुआ हो तो भी, उसके वृत्त का अवलंबन करके जो काव्य लिखा जाता है, उसे महाकाव्य कहते हैं। काव्य का नायक चतुर, उदात्त और अशेषसद्गुणसंपन्न होना चाहिए। महाकाव्य में नगर, पर्वत, नदी, समुद्र, ऋतु, चंद्र-सूर्योदय, उद्यान तथा जल-विहार, मधु-पान, रतोत्सव, विप्रलंभ-शृंगार, विवाह इत्यादि का वर्णन होना चाहिए। परंतु इनमें से कुछ न्यूनाधिक भी होने से काव्य का महाकाव्यत्व नष्ट नहीं होता। महाकाव्य रस, भाव और अलंकार-युक्त होना चाहिए और आठ से अधिक सर्गों में विभक्त होना चाहिए। अभी तक बाईस सर्ग से अधिक सर्गों के महाकाव्य नहीं देखे गए थे[२]। परंतु अब हरविजय-नामक एक पचास सर्ग का काव्य बंबई की काव्यमाला (मासिक पुस्तक) में प्रकाशित हुआ है। महाकाव्यों के प्रति सर्ग में भिन्न-भिन्न प्रकार के वृत्त प्रयुक्त होते हैं; परंतु कभी-कभी दो-दो, चार-चार सर्ग भी एक ही वृत्त में निबद्ध रहते हैं। किसी-किसी सर्ग में अनेक वृत्त भी होते हैं। बहुधा प्रति सर्ग के अंत में दो-एक अन्य-अन्य वृत्तों के श्लोक होते हैं, और कभी-कभी ऐसे स्थलों में लंबे-लंबे वृत्त प्रयुक्त [ १२ ]होते हैं। सब सर्ग न बहुत बड़े और न बहुत छोटे होने चाहिए। परंतु नैषध-चरित का प्रत्येक सर्ग और काव्यों के सर्गों की अपेक्षा बड़ा है। किसी-किसी सर्ग में २०० के लगभग श्लोक हैं, और अनुष्टुप् छंद का प्रयोग जिस सर्ग में है, उसमें तो श्लोकों को संख्या २०० के भी ऊपर पहुँची है। इसी से हरविजय को छोड़कर और सब काव्यों से नैषध-चरित बड़ा है। संस्कृत के काव्य विशेष करके श्रृंगार और वीर-रसात्मक ही हैं; परंतु बीच-बीच में और रस भी हैं।

खेद का विषय है कि आज तक, हिंदी में, महाकाव्य-लक्षणाक्रांत एक भी काव्य नहीं बना[३]। तुलसीदास-कृत रामायण यद्यपि परम रम्य और मनोहर काव्य है, तथापि पूर्वोक्त लक्षण-युक्त न होने से आलंकारिकों के मतानुसार उसे महाकाव्यों की श्रेणी में स्थान नहीं मिल सकता। परंतु हम तो उसे महाकाव्य ही नहीं, किंतु महामहाकाव्य कहने में भी संकोच नहीं करते।

बँगला और मराठी भाषाएँ हिंदी से अधिक सौभाग्यशालिनी हैं। इन भाषाओं में महाकाव्यों की रचना हुए बहुत दिन हुए। बंगभाषा में माइकेल मधुसूदनदत्त[ १३ ]
प्रणीत मेघनाद-वध और बाबू हेमचंद्र बंद्योपाध्याय-प्रणीत वृत्र-संहार तथा मराठी में वासुदेव वामन शास्त्री खरे का लिखा हुआ यशवंतराव-महाकाव्य -- ये सब महाकाव्यों की कक्षा में स्थान पाने योग्य हैं। यद्यपि इनमें दंडी-कथित महाकाव्य के सारे लक्षण नहीं पाए जाते, तथापि इनका कवित्व इतना मनोहर है कि इनको महाकाव्य कहना किसी प्रकार अनुचित नहीं। कवि की कल्पना-शक्ति स्फुरित होकर जब अभीष्ट वस्तु का वर्णन करती है, तभी कविता सरस और हृदयग्राहिणी होती है; नियम-बद्ध हो जाने से ऐसा कदापि नहीं हो सकता। क्योंकि आलंकारिकों के कहे हुए मार्ग का पद-पद पर अनुसरण करने से कविता लिखने में जिन प्रसंगों की कोई आवश्यकता नहीं होती, वे भी बलात् लाने पड़ते हैं, और तदनुकूल वर्णन करना पड़ता है। यह बलात्कार कविता के रमणीयत्व का विघातक होता है। अतः हम पूर्वोक्त नियमरूपी श्रृंखला से अतिशय बद्ध होने के पक्ष में नहीं।

  1. नैषध-काव्य के उदित होते ही कहाँ माघ और कहाँ भारवि? अर्थात् नैषध के सामने इन दोनों की प्रभा क्षीण हो गई।
  2. श्रीकंठ-चरित भी बहुत बड़ा काव्य है। उसमें २५ सर्ग हैं। परंतु उसके सर्ग इतने लंबे नहीं, जितने नैषध-चरित के हैं।
  3. हाल में कुछ काव्य ऐसे प्रकाशित हुए हैं, जो आलंकारिकों के लक्षणानुसार तो महाकाव्य नहीं, परंतु उनकी महत्ता प्राचीन महाकाव्यों से कम नहीं। प्रत्युत, समय को देखते, वे उनसे भी बढ़कर है।