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परीक्षा गुरु ३०

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निदान लाला मदनमोहन ब्रजकिशोर के नाम मुख्‌तयार नामा लिखकर अपनें मकान को रवानें हुए.


 

प्रकरण ३०.


नैराश्य (नाउम्मेदी).

फलहीन महील्ह कों खगवृन्द तजैं बन कों मृग भस्म भए।
मकरन्द पिए अरविन्द मिलिन्द तजैं सर सारस सूख गए॥
धन हीन मनुष्य तजैं गणिका नृपकों सठ सेवक राज हए।
बिन स्वारथ कौन सखा जग मैं? सब कारज के हित हीत भए॥÷[]

भर्तृहरि.

सन्ध्या समय लाला मदनमोहन भोजन करनें गए तब मुंशी चुन्नीलाल और मास्टर शिंभूदयाल को खुलकर बात करनें का अवकाश मिला. वह दोनों धीरे, धीरे बतलाने लगे.

"मेरे निकट तुमनें ब्रजकिशोरसै मेल करनें में कुछ बुद्धिमानी नहीं की. बैरी के हाथ मैं अधिकार देकर कोई अपनी रक्षा कर सक्ता है?" मास्टर शिंभूदयाल नें कहा.

"क्या करूं? इस्समय इस युक्ति के सिवाय अपनें बचाव का कोई रस्ता न था. लोगों की नालिशें हो चुकीं, अपनें भेद खुलनें का समय आगया. ब्रजकिशोर सब बातों से भेदी थे इसलिये मैंने उन्हीं के जिम्मे इन बातों के छिपाने का बोझ डाल दिया कि वह अपनें विपरीति कुछ न करने पायं!" मुन्शी चुन्नीलाल ने हीरालाल की बात उड़ा कर कहा.

"परन्तु अब ब्रजकिशोर तुम्हारा भेद खोल दें तो तुम कैसे अपना बचाव करो? हर काम मैं आदमी को पहले अपने निकास का रस्ता सोचना चाहिये. अभिमन्यु की तरह धुन बांध कर चकाबू मैं घुसे चले जाओगे तो फिर निकलना बहुत कठिन होगा. पतंग उड़ाकर डोर अपनें हाथ न रक्खोगे तो उस्के हाथ लगनेंकी क्या उम्मेद रहेगी?" मास्टर शिंभूदयाल ने कहा.

"मैंनें अपनें निकास की उम्मेद केवल ब्रजकिशोर के विश्वास पर बांधी है परन्तु उन्की दो एक बातों सै मुझको अभी सन्देह होनें लगा. प्रथम तो उन्होंनें इस गए बीते समय मैं मदनमोहन सै मेल करनें मैं क्या फायदा बिचारा? और महन्तानें के लालच सै मेल किया भी था तो ऐसी जलदी काग़ज़ तैयार करनें की क्या ज़रूरत थी? मैं जान्ता हूं कि वह नालिश करनेंवालों सै जवाबदिही करनें के वास्तै यह उपाय करते होंगे परन्तु जब वह जवाबदिही करेंगे तो नालिश करनेंवालों की तरफ़ सै हमारा भेद अपनें आप खुल जायगा और जिस बात को हम दूर फेंका चाहते हैं वही पास आजावेगी" मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा.

"वकीलों के यही तो पेच होते हैं जिस बात को वह अपनी तरफ़ सै नहीं कहा चाहते उल्टे सीधे सवाल करके दूसरे के मुख सै कहा लेते हैं और आप भलेके भले बनें रहते हैं. बिचारो तो सही हमनें ब्रजकिशोर के साथ कौन्सी भलाई की है जो वह हमारे साथ भलाई करैंगे? वकीलों के ढंग बड़े पेचीदा होते हैं वह एक मुकदमे मैं तुहारे वकील बनते हैं तो दूसरे मैं तुम्हारे बैरी के वकील बन जाते हैं परन्तु अपना मतलब किसी तरह नहीं जानें देते.”

"सच है इस काम मैं लाला ब्रजकिशोर की चाल पर अवश्य सन्देह होता है परन्तु क्या करें? अपनें वकील न करेंगे तो वह प्रतिपक्षी के वकील हो जायँगे और अपना भेद खोलनें मैं किसी तरह की कसर न रक्खेंगे” मुन्शी चुन्नीलाल कहनें लगा “असल तो यह है कि अब यहां रहने मैं कुछ मज़ा नहीं रहा प्रथम तो आगे को कोई बुर्द नहीं दिखाई देती फिर जिन लोगों सै हजारों रुपे खाए पीए हैं उन्हीं के सामनें होकर विवाद करना पड़ेगा और जब हम उन्सै बिबाद करेंगे तो वह हमसै मुलाहजा क्यों रक्खेंगे हमारा भेद क्यों छिपावेंगे? कभी, कभी हम उन्सै लाला साहब के हिसाब मैं लिखाकर बहुतसी चीज़ें घर लेगए हैं इसी तरह उन्के यहां जमा करानें के वास्तें लाला साहब सै जो रुपे लेगए थे वह उन्के यहां जमा नहीं कराए़ ऐसी रक़मों की बाबत पहले, पहले तो यह विचार था कि इस्समय अपना काम चला लें फिर जहांकी तहां पहुंचा देंगे परन्तु पीछे सै न तो अपनें पास रुपे की समाई हुई न कोई देखनें भालनें वाला मिला बस सब रक़में जहां की तहां रह गईं अब अदालत मैं यह भेद खुलेगा तो कैसी आफ़त आवेगी? और हम लाला साहब की तरफ़ सै बिवाद करेंगे तो यह भेद कैसे छिप सकेगा? क्या करें? कोई सीधा रस्ता नहीं दिखाई देता" यदि ऐसै ही पाप करके लोग बच जाया करते तो संसार मैं पाप पुण्यका विचार काहेको रहता?

“मुझको तो अब सीधा रस्ता यही दिखाई देता है कि जो हाथ लगे; ले लिवा कर यहां सै रफूचक्कर हो ब्रजकिशोर तुह्मारे भाग्य सै इस्समय आफसा है इस्के सिर मुफ्त का छप्पर रख कर अलग हो बैठो” मासृर शिंभूदयाल कहनें लगा “जिस तरह अलिफ़लैला में अबुलहसन और शम्सुल्निहार के परस्पर प्रेम बिबस हुए पीछे बखेड़ा उठनें की सूरत मालूम हुई तब उन्का मध्यस्थ इब्नतायर उन्को छिटकाकर अलग हो बैठा और एक जौहरी नें मुफ्त मैं वह आफ़त अपने सिर लेकर अपनें आप को जंजाल मैं फंसा दिया. इसी तरह इस्समय तुह्मारी और ब्रजकिशोर की दशा है. ब्रजकिशोर को काम सोंप कर तुम इस्समय अलग हो जाओ तो सब बदनामी का ठीकरा ब्रजकिशोर के सिर फूटेगा और दूध मलाई चखनें वाले तुम रहोगे!”

“यह तो बडे मज़े की बात है ब्रजकिशोर पर तो हम यह बोझ डालेंगे कि तुह्मारे लिये हम अलग होते हैं पीछे से हमारा भेद न खुलनें पाय लेनदारों सै यह कहेंगे कि तुह्मारे वास्ते लाला साहब सै हमारी तकरार होगई उन्होंनें हमारा कहा नहीं माना अब तुम भी कहीं हमको धोका न देना” मुन्शी चुन्नीलाल नें कहा.

“आज तो दोनों मैं बड़ी घूट, घूट कर बातें हो रही हैं” लाला मदनमोहन नें आतेही कहा. “तुह्मारी सलाह कभी पूरी नहीं होती न जानें कौन्से किले लेनें का विचार किया करते हो!” जी हुजूर! कुछ नहीं, मिस्टर रसल के मामले की चर्चा थी उस्की जायदाद के नीलाम की तारीख मैं केवल दो दिन बाकी हैं परन्तु अब तक रुपे का कुछ बंदोबस्त नहीं हुआ“ मुन्शी चुन्नीलाल नें तत्काल बात पलट कर कहा.

“इस बिना बिचारी आफत का हाल किस्को मालूम था? तुम उन्हें लिख दो कि जिस तरह होसके थोडे दिन की मुहलत लेलें. हम उस्के भीतर, भीतर रुपे का प्रबन्ध अवश्य कर देंगे” लाला मदनमोहन नें कहा.

"मुहलत पहले कई बार लेचुके हैं इस्सै अब मिलनी कठिन है परन्तु इस्समय कुछ गहना गिरबी रख कर रुपे का प्रबन्ध कर दिया जाय तो उस्की जायदाद बनी रहै और धीरे, धीरे रुपया चुका कर गहना भी छुडा लिया जाय” मास्टर शिंभूदयाल नें जाते जाते सिप्पा लगानें की युक्ति की. उस्का मनोर्थ था कि यह रक़म हाथ लगजाय तो किसी लेनदार को देकर भली भांति लाभ उठायें. अथवा मदनमोहन मांगनें योग्य न रहै तो सबकी सब रक़म आप ही प्रआद कर जायें. अथवा किसी के यहां गिरवी भी धरें तो लेनदारों को कुर्की करानें के लिए उस्का पता बता कर उनसै भली भांति हाथ रंगें. अथवा माल अपनें नीचे दबे पीछे और किसी युक्ति सै भर पूर फायदे की सूरत निकालें. परन्तु मदनमोहन के सौभाग्य सै इस्समय लाला ब्रजकिशोर आ पहुंचे इस लिये उस्की कुछ दाल न गली.

“क्याहै? किस काम के लिये गहना चाहते हो?” लाला ब्रजकिशोर नें शिंभूदयाल की उछटतीसरी बात सुनी थी इस्पर आतेही पूछा.

"जी कुछ नहीं, यह तो मिस्टर रसल की चर्चा थी" मुन्शी चुन्नीलाल नें बात उडानें के वास्ते गोल कहा.

"उस्का क्या देनलेन है? उस्का मामला अब तक अदालत मैं तो नहीं पहुंचा?" लाला ब्रजकिशोर पूछनें लगे.

"वह एक नीलका सौदागर है और उस्पर बीस, पच्चीस हजार रूपे अपने लेने हैं इस्समय उस्की नीलकी कोठी और कुछ बिस्वे बिस्वान्सी दूसरे की डिक्री मैं नीलाम पर चढे हैं और नीलाम की तारीख मैं केवल दो दिन बाकी हैं नीलाम हुए पीछै अपनें रुपे पटनें की कोई सूरत नहीं मालूम होती इस लिये ये लोग कहते थे कि गहना गिरवी रखकर उस्का कर्ज चुका दो परन्तु इतना बंदोबस्त तो इस्समय किसी तरह नहीं होसक्ता" लाला मदनमोहन नें लजाते, लजाते कहा.

"अभी आप को अपनें कर्जेका प्रबन्ध करना है और यह मामला केवल मुहलत लेनें सै कुछ दिन टल सक्ता है" लाला ब्रजकिशोर नें अपनें मनका संदेह छिपाकर कहा.

"मैं जान्ता हूं कि मेरा कर्ज चुकानें के लिये तो मेरे मित्रों की तरफ सै आज कल मैं बहुत रुपया आ पहुंचेगा" लाला मदनमोहन ने अपनी समझ मूजिब जवाब दिया.

"और मुहलत कई बार लेली गई है इस्सै अब मिलनी कठिन है" मास्टर शिंभूदयाल बोले.

"मैं खयाल करता हूं कि अदालत के विश्वास योग्य कारण बता दिया जायगा तो मुहलत अवश्य मिलजायगी" लाला ब्रजकिशोर नें कहा.

"और जो न मिली?" शिंभूदयाल हुज्जत करनें लगा.

"तो मैं अपनी ज़ामिनी देकर जायदाद नीलाम न होने दूंगा" ब्रजकिशोर नें जवाब दिया. और अब शिंभूदयाल को बोलनें की कोई जगह न रही.

"कल कई मुकद्दमों की तारीखैं लगरही हैं और अबतक मैं उन्के हाल सै कुछ भेदी नहीं हूँ तुमको अवकाश हो तो लाला साहब सै आज्ञा लेकर थोडी देरके लिये मेरे साथ चलो" लाला ब्रजकिशोर ने मुन्शी चुन्नीलाल सै कहा.

"हां, हां, तुम साथ जाकर सब बातें अच्छी तरह समझा आओ" लाला मदनमोहन नें मुन्शी चुन्नीलाल को हुक्म दिया.

"आप इस्समय किसी काम के लिये किसीको अपना गहना न दें ऐसे अवसरपर ऐसी बातों मैं तरह, तरहका डर रहता है" लाला ब्रजकिशोर नें जाती बार मदनमोहन सै संकेत मैं कहा और मुन्शी चुन्नीलाल को साथ लेकर रुखसत हुए.

आज लाला मदनमोहन की सभा मैं वह शोभा न थी केवल चुन्नीलाल शिंभूदयाल आदि दो चार आदमी दृष्टि आते थे परन्तु उन्के मनभी बुझे हुए थे. हँसी चुहल की बातें किसी के मुखसै नहीं सुनाई देती थीं खास्कर ब्रजकिशोर और चुन्नीलाल के गए पीछे तो और भी सुस्ती छागई मकान सुन्सान मालूम होनें लगा. शिंभूदयाल ऊपर के मन सै हँसी चुहल की कुछ, कुछ बातें बनाता था परन्तु उन्मैं मोमके फूलकी तरह कुछ रस न था. निदान थोड़ी देर इधर उधर की बातें बनाकर सब अपनें, अपनें रस्ते लगे और लाला मदनमोहन भी मुर्झाए चित्तसै पलंगपर जा लेटे.


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  1. ÷ वृक्षं क्षीणफलं त्यजन्ति विहगा दग्धं वनांन्तं मृगाः।
    पुष्पं पीतरसं त्यजन्ति मधुपा शुष्कं सरः सारसाः॥
    निर्द्रव्यं पुरुष त्यजन्ति गणिका भ्रष्ट नृपं मन्त्रिणः।
    सर्वः कार्यवशज्जनो भिरमते कः कस्यने बल्लभः॥