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नव-निधि/पाप का अग्निकुण्ड

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बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ५३ से – ६४ तक

 

कुँवर पृथ्वीसिंह महाराज यशवन्तसिंह के पुत्र थे। रूप,गुण और विद्या में प्रसिद्ध थे। ईरान, मिस्र,श्याम आदि देशों में परिभ्रमण कर चुके थे और कई भाषाओं के पण्डित समझे जाते थे। इनकी एक बहिन थी जिसका नाम राज-नन्दिनी या। यह भी जैसी सुरूपवती और सर्वगुणसम्पन्ना थी ; वैसी ही प्रसन्न-वदना, मृदुभापिणी भी थी। कड़वी बात कहकर किसी का जी दुखाना उसे पसन्द नहीं था। पाप को तो वह अपने पास भी नहीं फटकने देती थी। यहाँ तक कि कई बार महाराज यशवन्तसिंह से भी वाद-विवाद कर चुकी थी और अब कभी उन्हें किसी बहाने कोई अनुचित काम करते देखती, तो उसे यथाशक्ति रोकने की चेष्टा करती। इसका व्याह कुँबर धर्मसिंह से हुआ था। यह एक छोटी रियासत का अधिकारी और महाराज यशवन्तसिंह की सेना का उच्च पदाधिकारी था। धर्मसिंह बड़ा उदार और कर्मवीर था। इसे होनहार देखकर महाराज ने राजनन्दिनी को इसके साथ ब्याह दिया था और दोनों बड़े प्रेम से अपना वैवाहिक जीवन बिताते थे। धर्मसिंह अधिकतर जोधपुर में ही रहता था। पृथ्वीसिंह उसके गाढ़े मित्र थे। इनमें जैसी मित्रता थी, वैसी भाइयों में भी नहीं होती। जिस प्रकार इन दोनों राजकुमारों में मित्रता थी,उसी प्रकार दोनों राजकुमारियाँ भी एक दूसरी पर जान देती थीं। पृथ्वीसिंह की स्त्री दुर्गाकुँवरि बहुत सुशील और चतुरा थी। ननद भावन में अनबन होना लोक-रीति है,पर इन दोनों में इतना स्नेह था कि एक के बिना दूसरी को कभी कल नही पड़ता था। दोनों स्त्रियाँ संस्कृत से प्रेम रखती थीं।

एक दिन दोनों राजकुमारियाँ बाग की सैर में मग्र थीं कि एक दासी ने राजनन्दिनी के हाथ में एक कागज़ लाकर रख दिया। राजनन्दिनी ने उसे खोला तो वह संस्कृत का एक पत्र था। उसे पढ़कर उसने दासी से कहा कि उन्हें मेज दे। थोड़ी देर में एक स्त्री सिर से पैर तक एक चादर ओढ़े आती दिखाई दी। इसकी उम्र २५ साल से अधिक न थी,पर रंग पीला था। आँखें बड़ी और ओठ सूखे। चाल-ढाल में कोमलता थी और उसके डील-डौल का गठन बहुत ही मनोहर था। अनुमान से जान पड़ता था कि समय ने इसकी यह दशा कर रखी है पर एक समय वह भी होगा जब यह बड़ी सुन्दर होगी। इस स्त्री ने आकर चौखट चूमी और आशीर्वाद देकर फर्श पर बैठ गई। राजनन्दिनी ने इसे सिर से पैर तक बड़े ध्यान से देखा और पूछा, "तुम्हारा नाम क्या है ?"

उसने उत्तर दिया,"मुझे व्रजविलासिनी कहते हैं।"

"कहाँ रहती हो ?"

"यहाँ से तीन दिन की राह पर एक गाँव विक्रमनगर है,वहाँ मेरा घर है।"

"संस्कृत कहाँ पढ़ी है?"

"मेरे पिताजी संस्कृत के बड़े पण्डित थे,उन्हीं ने थोड़ी-बहुत पढ़ा दी है।"

"तुम्हारा व्याह तो हो गया है न ?”

ब्याह का नाम सुनते ही व्रजविलासिनी की आँखों से आँसू बहने लगे। वह आवाज़ सम्हालकर बोली-इसका जवाव में फिर कभी ट्रॅगी, मेरी गमकहानी बड़ी दुःखमय है। उसे सुनकर आपको दुःख होगा, इसलिए इस समय क्षमा कीनिए।

आज से बजविलासिनी वहीं रहने लगी। संस्कृत-साहित्य में उसका बहुत प्रवेश था। वह राजकुमारियों को प्रतिदिन रोचक कविता पढ़कर सुनाती थी। उसके रंग,रूप और विद्या ने धीरे-धीरे राजकुमारियों के मन में उसके प्रति प्रेम और प्रतिष्ठा उत्पन्न कर दी । यहाँ तक कि राजकुमारियों और व्रजविलासिनी के बीच बड़ाई-छुटाई उठ गई और वे सहेलियों की भाँति रहने लगीं।

कई महीने बीत गये। कुँवर पृथ्वीसिंह और धर्मसिंह दोनों महाराज के साथ अफ़गानिस्तान की मुहीम पर गये हुए थे। यह विरह की घड़ियाँ मेवदूत और रघुवंश के पढ़ने में कटी। व्रजविलासिनी को कालिदास की कविता से बहुत प्रेम था और वह उनके काव्यों की व्याख्या ऐसी उत्तमता से करतो और उसमें ऐसी बारीकियाँ निकालती कि दोनों राजकुमारियाँ मुग्ध हो जाती।

एक दिन संध्या का समय था,दोनों राजकुमारियाँ फुलवाड़ी में सैर करने

गई, तो देखा कि व्रजविलासिनी हरी-हरी घास पर लेटी हुई है और उसकी आँखों से आँसू बह रहे हैं। राजकुमारियों के अच्छे बर्ताव और स्नेहपूर्ण बात-चीत से उसकी सुन्दरता कुछ चमक गई थी। इनके साथ अब वह भी राजकुमारी जान पड़ती थी। पर इन सब बातों के रहते भी वह बेचारी बहुधा एकान्त में बैठकर रोया करती। उसके दिल पर एक ऐसी चोट थी कि वह उसे दम भर भी चैन नहीं लेने देती थी। राजकुमारियाँ उस समय उसे रोती देखकर बड़ी सहानुभूति के साथ उसके पास बैठ गई। राजनन्दिनी ने उसका सिर अपनी जाँघ पर रख लिया और उसके गुलाब से गालो को थपथगकर कहा-सखी, तुम अपने दिल का हाल हमें न बताओगी ? क्या अब भी हम गैर हैं! तुम्हारा यो अकेले दुःख की आग में जलना हमसे नहीं देखा जाता। व्रजविलासिनी आवाज़ सम्हालकर बोली-बहिन, मैं अभागिनी हूँ। मेरा हाल मत सुनो।

राज०-अगर बुरा न मानो तो एक बात पूछ्।

ब्रज- क्या, कहो।

गज०-वही जो मैंने पहले दिन पूछा था,तुम्हारा व्याह हुआ है कि नहीं ?

ब्रज०-इसका जवाब मैं क्या दूँ ? अभी नहीं हुआ।

राज०- क्या किसी का प्रेम का बाण हृदय में चुभा हुआ है?

व्रज०-नहीं बहिन, ईश्वर जानता है।

गम०-तो इतनी उदास क्यों रहती हो? क्या प्रेम का आनन्द उठाने को जी चाहता है।

ब्रज-नहीं, दुःख के सिवा मन में प्रेम को स्थान ही नहीं।

राज०-म प्रेम का स्थान पैदा कर देंगी।

वजविलासिनी इशारा समझ गई और बोली-बहिन, इन बातों की चर्चा न करो।

राज०-मैं अब तुम्हारा ब्याह रचाऊँगा ? दीवान जयचन्द को तुमने देखा है ?

ब्रजविलासिनी आँसू भरकर बोली-राजकुमारी ; मैं व्रतधारिणी हूँ और अपने व्रत को पूरा करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है। प्रण को निभाने के लिए मैं जीती हूँ, नहीं तो मैंने ऐसी आफ़त झेली हैं कि जीने की इच्छा अब नहीं
रही। मेरे बाप विक्रमनगर के जागीरदार थे। मेरे सिवा उनके कोई संतान न भी। वे मुझे प्राणों से अधिक प्यार करते थे। मेरे ही लिए उन्होंने बरसों संस्कृत साहित्य पढ़ा था। युद्ध-विद्या में वे बड़े निपुण थे और कई बार लड़ाइयों पर गये थे।

"एक दिन गोधूलि वेला में सब गायें जंगल से लौट रही थीं। मैं अपने द्वार पर खड़ी थी। इतने में एक जवान बाँकी पगड़ी बाँधे, हथियार सजाये, झूमता आता दिखाई दिया। मेरी प्यारी मोहिनी इस समय जंगल से लौटी थी, और उसका बच्चा इधर कलोलें कर रहा था। संयोगवश बच्चा उस नवजवान से टकरा गया। गाय उस आदमी पर झपटी। राजपूत बड़ा साहसी था। उसने शायद सोचा कि भागता हूँ तो कलंक का टीका लगता है, तुरन्त तलवार म्यान से खींच ली और वह गाय पर झपटा। गाय झल्लाई हुई तो थी ही, कुछ भी न डरी। मेरी आँखों के सामने उस राजपूत ने उस प्यारी गाय को जान से मार डाला। देखते-देखते सैकड़ों श्रादमी जमा हो गये और उसको टेढ़ी-सीधी सुनाने लगे। इतने में पिताजी भी आ गये। वे सन्ध्या करने गये थे। उन्होंने आकर देखा कि द्वार पर सैकड़ों श्रादमियों की भीड़ लगी है, गाय तड़प रही है और उसका बच्चा खड़ा रो रहा है। पिताजी की आहट सुनते ही गाय कराहने लगी और उनकी ओर उसने कुछ ऐसी दृष्टि से देखा कि उन्हें क्रोध आ गया। मेरे बाद उन्हें वह गाय ही प्यारी थी वे ललकारकर बोले - मेरी गाय किसने मारी है ? नवजवान लज्जा से सिर झुकाये सामने आया और बोला- मैंने।

पिताजी-तुम क्षत्रिय हो ?

राजपूत-हाँ !

पिताजी-तो किसी क्षत्रिय से हाथ मिलाते ?

राजपूत का चेहरा तमतमा गया। बोला-कोई क्षत्रिय सामने आ जाय। हजारों आदमी खड़े थे, पर किसी का साहस न हुआ कि उस राजपूत का सामना करे। यह देखकर पिताजी ने तलवार खींच ली और वे उस पर टूट पड़े। उसने भी तलवार निकाल ली और दोनों आदमियों में तलवारें चलने लगीं। पिताजी बूढ़े थे; सीने पर जखम गहरा लगा। गिर पड़े। उन्हें उठाकर लोग घर पर लाये। उनका चेहरा पीला था, पर उनकी आँखों से चिनगारियाँ निकल रही

थीं। मैं रोती हुई उनके सामने आई। मुझे देखते ही उन्होंने सब आदमियों को वहाँ से हट जाने का संकेत किया। जब मैं और पिताजी अकेले रह गये, तो बोले-बेटी, तुम राजपूतानी हो ?

मैं-जी हाँ।

पिताजी-राजपूत बात के धनी होते हैं ?

मैं-जी हाँ।

पिताजी-इस राजपूत ने मेरी गाय की जान ली है, इसका बदला तुम्हें लेना होगा।

मैं-आपकी आज्ञा का पालन करूँगी।

पिताजी-अगर मेरा बेटा जीता होता तो मैं यह बोझा तुम्हारी गर्दन पर न रखता।

"आपकी जो कुछ आशा होगी, मैं सिर-आँखों से पूरी करूँगी।"

पिताजी-तुम प्रतिज्ञा करती हो ?

मैं-जी हाँ।

पिताजी-इस प्रतिज्ञा को पूरा कर दिखाओगी ?

मैं-जहाँ तक मेरा वश चलेगा,मैं निश्चय यह प्रतिज्ञा पूरी करूंगी।

पिताजी-यह मेरी तलवार लो। जब तक तुम यह तलवार उस राजपूत के कलेजे में न भोक दो,तब तक भोग-विलास न करना।

'यह कहते-कहते पिताजी के प्राण निकल गये। मैं उसी दिन से तलवार को कपड़ों में छिपाये उस नौजवान गजपूत की तलाश में घूमने लगी। वर्षो वीत गये। मैं कभी बस्तियों में जाती, कभी पहाड़ों-जंगलों की खाक छानतो, पर उस नौषवान का कहीं पता न मिलता। एक दिन मैं बैठी हुई अपने फूटे भाग पर रो रही थी कि वही नौजवान आदमी श्राता हुआ दिखाई दिया। मुझे देखकर उसने पूछा,तू कौन है ? मैंने कहा, मैं दुखिया ब्राह्मणी हूँ, आप मुझपर दया कीजिए और मुझे कुछ खाने को दीजिए। राजपूत ने कहा, अच्छा मेरे साथ आ।

'मैं उठ खड़ी हुई। वह आदमी बेसुध था। मैंने बिजली की तरह लपककर कपड़ों में से तलवार निकाली और उसके सीने में भोंक दी। इतने में कई

आदमी आते दिखाई पड़े। मैं तलवार छोड़कर भागी। तीन वर्ष तक पहाड़ों और जंगलों में छिपी रही। बार-बार जी में पाया कि कहीं डूब मरूँ, पर जान वही प्यारी होती है। न जाने क्या-क्या मुसीबतें और कठिनाइयाँ भोगनी हैं जिनको भोगने को अभी तक जीती हूँ। अन्त में जब जंगल में रहते-रहते जी उकता गया, तो जोधपुर चली आई। यहाँ आपकी दयालुता की चर्चा सुनी। आपकी सेवा में आ पहुँची और तसे आपकी कृपा से मैं पाराम से जीवन बिता रही हूँ। यही मेरी रामकहानी है।"

राजनन्दिनी ने लम्बी साँस लेकर कहा-दुनिया में कैसे कैसे लोग भरे हुए हैं ? खैर, तुम्हारी तलवार ने उसका काम तो तमाम कर दिया ?

व्रजविलासिनी-कहाँ बहिन! वह बच गया,जखम ओछा पड़ा था। उसी शकल के एक नौजवान राजपूत को मैंने जंगल में शिकार खेलते देखा था। नहीं मालूम, वही था या और कोई, शकल बिलकुल मिलती थी।

कई महीने बीत गये। राजकुमारियों ने जबसे व्रजविलासिनी की रामकहानी सुनी है, उसके साथ वे और भी प्रेम और सहानुभूति का बर्ताव करने लगी हैं। पहले बिना संकोच कभी-कभी छेड़छाद हो जाती थी; पर अब दोनों हरदम उसका दिल बहलाया करती हैं । एक दिन बादल घिरे हुए थे; गजनन्दिनी ने कहा-आज बिहारी लाल की 'सतसई' सुनने को जी चाहता है। वर्षा ऋतु पर उसमें बहुत अच्छे दोहे हैं।

दुर्गाकुँवरि-बड़ी अनमोल पुस्तक है। सखी, तुम्हारी वगल में जो बाल-मारी रखी है, उसी में वह पुस्तक है, जरा निकालना। व्रजविलासिनी ने पुस्तक उतारी, और उसका पहला ही पृष्ठ खोला था कि उसके हाथ से पुस्तक छूटकर गिर पड़ी। उसके पहले पृष्ठ पर एक तसवीर लगी हुई थी। वह उसी निर्दय युवक की तसवीर थी जो उसके बाप का इत्याग था। व्रजविलासिनी की आखें लाल हो गई। त्योरी पर बल पड़ गये। अपनी प्रतिज्ञा याद आ गई। पर उसके साथ ही यह विचार उत्पन्न हुआ कि इस प्रादमी का चित्र यहाँ कैसे पाया और इसका इन राजकुमारियों से क्या सम्बन्ध है। कहीं ऐसा न हो कि मुझे इनका कृतज्ञ होकर अपनी प्रतिज्ञा तोड़नी पड़े। राजनन्दिनी ने उसकी सूरत देखकर कहा-

सखी,क्या बात है ? यह क्रोध क्यों ? व्रजविलासिनी ने सावधानी से कहा-कुछ नहीं, न जाने क्यों चक्कर आ गया था।

आज से व्रजविलासिनी के मन में एक और चिन्ता उत्पन्न हुई-क्या मुझे राजकुमारियों का कृतज्ञ होकर अपना प्राण तोड़ना पड़ेगा ?

पूरे सोलह महीने के बाद अफ़गानिस्तान से पृथ्वीसिंह और धर्मसिंह लौटे। बादशाह की सेना को बड़ी बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। बर्फ अधिकता से पड़ने लगी। पहाड़ों के दरें बर्फ से ढक गये। आने जाने के रास्ते बन्द हो गये। रसद के सामान कम मिलने लगे। सिपाही भूखों मरने लगे। अब अफ़गानों ने समय पाकर गत को छापे मारने शुरू किये। आखिर शाहजादे मुहीउद्दीन को हिम्मत हारकर लौटना पड़ा।

दोनों राजकुमार ज्यों-ज्यों जोधपुर के निकट पहँचते थे, उत्कण्ठा से उनके मन उमड़े आते थे। इतने दिनों के वियोग के बाद फिर भेंट होगी। मिलने की तृष्णा बढ़ती जाती है। रातदिन मंज़िलें काटते चले आते है, न थकावट मालूम होती है, न माँदगी। दोनों घायल हो रहे हैं, पर फिर भी मिलने की खुशी में जख़मों की तकलीफ़ भूले हुए हैं। पृथ्वीसिंह दुर्गाकुँवरि के लिए एक अफगानी कटार लाये हैं। धर्मसिंह ने राजनन्दिनी के लिए काश्मीर का एक बहुमूल्य शाल-जोड़ मोल लिया है। दोनों के दिल उमंग से भरे हुए हैं।

राजकुमारियों ने जब सुना कि दोनों वीर वापस पाते है,तो वे फूले अंगों न समाई। श्रृंगार किया जाने लगा, माँगें मोतियों से भरी जाने लगों, उनके चेहरे खुशी से दमकने लगे। इतने दिनों के विछोह के बाद फिर मिलाप होगा, खुशी आँखों से उबली पड़ती है। एक दूसरे को बेड़ती हैं और खुश होकर गले मिलती है। अगहन का महीना था, बरगद की डालियों में मूंगे के दाने लगे हुए थे। जोधपुर के किले से सलामियों की धनगर्ज आवाजें आने लगीं। सारे नगर में धूम मच गई कि कुँवर पृथ्वीसिंह सकुशल अफ़गानिस्तान से लौट आये। दोनों राजकुमारियाँ थाली में प्रारती के सामान लिये दरवाजे पर खड़ी थीं। पृथ्वीसिंह दरबारियों के मुजरे लेते हुए महल में आये। दुर्गाकुँवरि ने आरती उतारी और दोनों एक दूसरे को देखकर खुश हो गये। धर्मसिंह भी प्रसन्नता से ऐंठते हुए
अपने महल में पहुँचे, पर भीतर पैर रखने भी न पाये थे कि छींक हुई, और बाई आँख फकड़ने लगी। राजनन्दिनी भारती का थाल लेकर लपकी, पर उसका पैर फिसल गया और थाल हाथ से छटकर गिर पड़ा। धर्मसिंह का माथा ठनका और राजनन्दिनी का चेहरा पीला हो गया। यह असगुन क्यों ?

व्रजविलासिनी ने दोनों राजकुमारों के आने का समाचार सुनकर उन दोनों को देने के लिए दो अभिनन्दन पत्र बना रखे थे। सवेरे जब कुँवर पृथ्वीसिह सन्ध्या आदि नित्य-क्रिया से निपटकर बैठे, तो वह उनके सामने आई और उसने एक सुन्दर कुश की चुंगेली में अभिनन्दन पत्र रख दिया। पृथ्वीसिंह ने उसे प्रसन्नता से ले लिया। कविता यद्यपि उतनी बढ़िया न थी, पर वह नई और वीरता से भरी हुई थी। वे वीररस के प्रेमी थे, उसको पढ़कर बहुत खुश हुए और उन्होंने मोतियों का हार उपहार दिया।

व्रजविलासिनी यहाँ से छुट्टी पाकर कुँवर धर्मसिंह के पास पहुंची वे बैठे हुए राजनन्दिनी को लडाई की घटनाएँ सुना रहे थे, पर ज्यों ही व्रजविलासिनी की आँख उनपर पड़ी, वह सन्न होकर पीछे हट गई। उसको देखकर धर्मसिंह के चेहरे का भी रंग उड़ गया, होंठ सूख गये और हाथ-पैर सनसनाने लगे। व्रज-विलासिनी तो उलटे पाँव लौटी ; पर धर्मसिंह ने चारपाई पर लेटकर दोनों हाथों से मुँह बँक लिया। राजनन्दिनी ने यह दृश्य देखा और उसका फूल-सा बदन पसीने से तर हो गया। धर्मसिंह सारे दिन पलंग पर चुपचाप पड़े करवट बदलते रहे। उनका चेहरा ऐसा कुम्हला गया। जैसे वे बरसों के रोगी हों। राजनन्दिनी उनकी सेवा में लगी हुई थी। दिन तो यों कटा, रात को कुँवर साहब सन्ध्या ही से यकाषट का बहाना करके लेट गये। रामनन्दिनी हेरान थी कि माजरा क्या है। वनविलासिनी इन्हीं के खून की प्यासी है ? क्या यह सम्भव है कि मेरा प्यारा, मेरा मुकुट धर्मसिंह ऐसा कठोर हो ? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता ।वह यद्यपि चाहती है कि अपने भावों से उनके मन का बोझ हलका करे, पर नहीं कर सकती। अन्त को नींद ने उसको अपनी गोद में ले लिया।

रात बहुत बीत गई है। प्राकाश में अंधेरा छा गया है। सारस की दुःख से भरी बोली कभी-कभी सुनाई दे जाती है। और रह-रहकर किले के सन्तरियों

की आवाज़ कान में आ पड़ती है। राजनन्दिनी की आँख एकाएक खुली,तो उसने धर्मसिंह को पलंग पर न पाया। चिन्ता हुई, वह झट उठकर व्रजविलासिनी के कमरे की ओर चली और दरवाजे पर खड़ी होकर भीतर की ओर देखने लगी। संदेह पूरा हो गया। क्या देखती है कि विलासिनी हाथ में तेगा लिये खड़ी है और धर्मसिंह दोनों हाथ जोड़े उसके सामने दोनों की तरह घुटने टेके बैठे हैं। वह दृश्य देखते ही राजनन्दिनी का खून सूख गया और उसके सिर में चक्कर आने लगा, पैर लड़खड़ाने लगे। जान पड़ता था कि गिरी जाती है। वह अपने कमरे में आई और मुँह ढंककर लेट रही, पर उसकी आँखों से एक बूंद भी न निकली।

दूसरे दिन पृथ्वीसिंह बहुत सबेरे ही कुँवर धर्मसिंह के पास गये और मुस्कराकर बोले-भैया, मौसिम बड़ा सुहावना है, शिकार खेलने चलते हो ?

धर्मसिंह - हाँ, चलो।

दोनों राजकुमारों ने घोड़े कसवाये और जंगल की ओर चल दिये। पृथ्वी-सिंह का चेहरा खिला हुआ था, जैसे कमल का फूल। एक-एक अंग से तेजी और चुस्ती टपकी पड़ती थी। पर कुँवर धर्मसिंह का चेहरा मैला हो गया था मानो बदन में जान ही नहीं है। पृथ्वीसिंह ने उन्हें कई बार छेड़ा, पर जब देखा कि वे बहुत दुखी हैं, तो चुप हो गये। चलते-चलते दोनों आदमी झील के किनारे पर पहुँचे। एकाएक धर्मसिंह ठिठके और बोले-मैंने आज रात को एक दृढ़ प्रतिज्ञा की है। यह कहते-कहते उनकी आँखों में पानी आ गया। पृथ्वीसिंह ने घबड़ाकर पूछा कैसी प्रतिमा ?

तुमने व्रजविलासिनी का हाल सुना है ? मैंने प्रतिज्ञा की है कि जिस आदमी ने उसके बाप को मारा है, उसे भी जहन्नुम पहुँचा हूँ।

'तुमने सचमुच वीर-प्रतिज्ञा की है।'

'हाँ, यदि मैं पूरी कर सकूँ। तुम्हारे विचार में ऐसा आदमी मारने योग्य है या नहीं ?

'ऐसे निर्दयी की गर्दन गुठ्ठल छुरी से काटनी चाहिए।'

'बेशक,यही मेरा भी विचार है। यदि मैं किसी कारण यह काम न कर सकूं तो तुम मेरी प्रतिज्ञा पूरी कर दोगे ?' 'नही खुशी से। उसे पहचानते हो न?

'हाँ, अच्छी तरह।

'तो अच्छा होगा, यह काम मुझको ही करने दो, तुम्हें शायद उसपर दया आ जाय।

'बहुत अच्छा। पर यह याद रखो कि वह आदमो बड़ा भाग्यशाली है ! कई बार मौत के मुँह से बचकर निकला है। क्या आश्चर्य है कि तुमको भी उसपर दया आ नाय। इसलिए तुम प्रतिज्ञा करो कि उसे जरूर जहन्नुम पहुँचाओगे।'

'मैं दुर्गा की शपथ खाकर कहता कि उस आदमी को अवश्य मासँगा।

'बस, तो हम दोनों मिलकर कार्य सिद्ध कर लेंगे। तुम अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहोगे न ?

क्यों ? क्या मैं सिपाही नहीं हूँ। एक बार जो प्रतिज्ञा की,समझ लो कि वह पूरी करूंगा,चाहे इसमें अपनी जान ही क्यों न चली जाय।'

'सव अवस्थाओं में?'

'हाँ, सच अवस्थाओं में।'

'यदि वह तुम्हारा कोई वन्धु हो तो?

पृथ्वीसिंह ने धर्मसिंह को विचारपूर्वक देखकर कहा- कोई बंधु हो तो ?

धर्मसिंह - हाँ, सम्भव है,कि तुम्हारा कोई नातेदार हो।

पृथ्वीसिंह ने कहा -(जोश में) कोई हो,यदि मेरा भाई भी हो, तो भी जीता चुनवा दूं।

धर्मसिंह घोड़े से उतर पड़े! उनका चेहरा उतरा हुआ था और ओठ काँप रहे थे। उन्होंने कमर से तेगा खोलकर ज़मीन पर रख दिया और पृथ्वीसिंह को ललकारकर कहा-पृथ्वीसिंह तैयार हो जाओ। वह दुष्ट मिल गया। पृथ्वीसिंह ने, चौंककर इधर-उधर देखा तो धर्मसिंह के सिवाय और कोई दिखाई न दिया।

धर्मसिंह-तेगा खींचो।

पृथ्वीसिंह-मैंने उसे नहीं देखा।

धर्मसिंह वह तुम्हारे सामने खड़ा है। वह दुष्ट कुकर्मी धर्मसिह ही है।

पृथ्वीसिंह-(घबराकर) ऐ तुम!-मैं-

धर्मसिंह -- राजपूत, अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।

इतना सुनते ही पृथ्वीसिंह ने बिजली की तरह कमर से टेगा खींच लिया और उसे धर्मसिंह के सीने में चुभा दिया। मूठ तक तेगा चुभ गया। खून का फव्वारा बह निकला। धर्मसिंह ज़मीन पर गिरकर धीरे से बोले -- पृथ्वीसिंह, मैं तुम्हारा बहुत कृतज्ञ हूँ। तुम सच्चे वीर हो। तुमने पुरुष का कर्तव्य पुरुष की भाँति पालन किया।

पृथ्वीसिंह यह सुनकर ज़मीन पर बैठ गये और रोने लगे।

अब राजनन्दिनी सती होने जा रही है। उसने सोलहों श्रृंगार किये हैं और माँग मोतियों से भरवाई है। कलाई में सोहाग का कंगन है पैरों में मावर लगाया है और लाल चुनरी ओढ़ी है। उसके अंग से सुगन्धि उड़ रही है, क्योंकि वह श्राज सती होने जाती है।

राजनन्दिनी का चेहरा सूर्य की भाँति प्रकाशमान है। उसकी ओर देखने से आँखों में चकाचौंध लग जाती है। प्रेम-मद से उसका रोयां-रोयां मस्त हो गया है, उसकी आँखों से अलौकिक प्रकाश निकल रहा है। वह आज स्वर्ग की देवी जान पड़ती है। उसकी चाल बड़ी मदमाती है। वह अपने प्यारे पति का सिर अपनी गोद में लेती है, और उस चिता में बैठ जाती है जो चन्दन, खस आदि से बनाई गई है।

सारे नगर के लोग यह दृश्य देखने के लिए उमड़े चले आते हैं। बाजे बज रहे हैं, फूलों की वृष्टि हो रही है। सती चिता में बैठ चुकी थी कि इतने में कुँवर पृथ्वीसिंह आये और हाथ जोड़कर बोले -- महारानी, मेरा अपराध क्षमा करो।

सती ने उत्तर दिया -- क्षमा नहीं हो सकता। तुमने एक नौजवान राजपूत की जान ली है, तुम भी जवानी में मारे जाओगे।

सती के वचन कभी झूठे हुए हैं ? एकाएक चिता में आग लग गई। जय-जयकार के शब्द गूँजने लगे। सती का मुख भाग में यों चमकता था; जैसे सबेरे की ललाई में सूर्य चमकता है। थोड़ी देर में वहाँ राख के ढेर के सिवा और कुछ न रहा।

इस सती के मन में कैसा सत था! परसों जब उसने व्रजविलासिनी को

झिझककर धर्मसिंह के सामने जाते देखा था, उसी समय से उसके दिल में संदेह हो गया था। पर जब रात को उसने देखा कि मेरा पति इसी स्त्री के सामने दुखिया की तरह बैठा हुआ है, तब वह सन्देह निश्चय की सीमा तक पहुँच गया और यही निश्चय अपने साथ सत लेता आया था। सबेरे जब धर्मसिंह उठे तब राजनन्दिनी ने कहा था कि मैं व्रजविलासिनी के शत्रु का सिर चाहती हूँ, तुम्हें लाना होगा ही और ऐसा हुआ। अपने सती होने के सब कारण राजनन्दिनी ने जान-बूझकर पैदा किये थे, क्योंकि उसके मन में सत था। पाप की आग कैसी तेज होती है ? एक पाप ने कितनी जानें ली? राजवंश के दो राजकुमार और दो कुमारियाँ देखते-देखते इस अग्निकुण्ड में स्वाहा हो गई । सती का वचन सच हुआ। सात ही सप्ताह के भीतर पृथ्वीसिंह दिल्ली में कत्ल किये गये और दुर्गा-कुमारी सती हो गई।


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