पुरातत्त्व प्रसंग/कालेपानी के आदिम असभ्य

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कालेपानी के आदिम असभ्य

भारत के अधिकांश मनुष्य अन्दमन-द्वीप का नाम सुनकर यह नहीं बता सकते कि वह कहाँ है। पर काले पानी के नाम से वे प्रायः सभी परिचित है। गहरे समुद्र का जल कालिमा लिये होता है। इसी से शायद इस द्वीप- पुञ्ज को यहाँवाले कालापानी कहते हैं। इसकी अधिक प्रसिद्धि का कारण यह है कि सख्त और लम्बी सजा पाये हुए भारतीय मुजरिम या कैदी समुद्र-पार इसी द्वीप को भेजे जाते रहे है। वहीं के जेलों में वे बन्द किये जाते थे। और अब भी वे हज़ारों की संख्या में यहाँ कैद है। अब कुछ समय से वहाँ कैदियों का जाना बन्द कर दिया गया है। वहाँ के बहुत से कैदी भारत को लौटा भी दिये गये हैं। तथापि अब तक वहाँ बहुत से कैदी है। उनमें से कुछ तो वहीं बस भी गये हैं। दक्षिण के बहुत से मोपले उस साल बाग़ी हो गये थे। उनमें से भी बहुत से मोपले, सजा पाने पर, वहीं भेजे गये हैं। अब तो उनकी स्त्रियाँ और बच्चे भी वहीं भेजे जा रहे हैं। ये सब लोग वहीं अलग अलग गांवों में बस कर मिहनत-मजदूरी और काश्तकारी करेंगे। ये वहाँ बहुत कुछ स्वच्छन्द रहेगे,
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पर सीमा के बाहर न जाने पावेंगे। कहने की जरूरत नहीं, अन्दमन-द्वीप में अँगरेजी राज्य है। वहाँ एक चीफ- कमिश्नर रहता है। वही वहाँ का सर्वोच्च अधिकारी है। सरकार अब इस द्वीप की आबादी बढ़ाकर खेती.. किसानी वोरह के पेशे की वृद्धि करना चाहती है। से द्वीप-समूह बङ्गाले की खाड़ी के दक्षिणी भाग में अवस्थित है। वहाँ का प्रधान नगर पोर्ट ब्लेयर है। वही वहाँ की राजधानी है।

अन्दमन या अन्दमान द्वीप-समूह में पृथ्वी के बहुत ही प्राचीन निवासियों की जाति के कुछ लोग रहते हैं। यह जाति लाखों वर्ष की पुरानी है। ये अन्दसनी कहला हैं। ये नेप्रिटी अर्थात् छोटी हबशी जाति के अवशिष्ट मनुष्य हैं विद्वानो का ख़याल है कि बहुत प्राचीन काल में, भूतल के अधिकांश भाग में, इसी जाति के मनुष्यों का निवास था। फिलीपाइन नाम के द्वीपों में रहनेवाली ऐटा और मलय-प्रायद्वीप में रहनेवाली सैमांग नामक जाति के लोग अन्दमनियों से बहुत कुछ मिलते-जुलते है। दक्षिण भारत की कोलार नामक जाति के लोगों में भी नेग्रिटो जाति का कुछ रक्त-सम्बन्ध पाया जाता है। टारेस-मुहाने के पश्चिमी द्वीपो में भी अन्दमन-द्वीर के आदिम निवासियों की तरह के आचार-व्यवहार देखने में आते हैं। सम्भव है, काँगो और तस्मानिया, के निवासी-
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भी इन्हीं के वंशन हों। किन्तु विशुद्ध नेग्रिटो जाति अब केवल अन्दमन-द्वीपो ही में रह गई है। हजारों वर्ष बीत जाने पर भी, अब भी, अन्दमनियों में उनके पुराने आचार-व्यवहार वैसे ही पाये जाते हैं। दूसरे देशो और द्विपो में या तो इन लोगों के वंश का सर्वथा ही नाश हो चुका है या दूसरी जाति के लोगों में इनके मिल जाने से, नीर-क्षीर-वत् इनका अब पता ही नहीं चलता। जान पड़ता है, किसी दैविक दुर्घटना के कारण, समुद्र के नीचे पृथ्वी का बहुत-सा भाग डूब गया। पर इनका निवास स्थान बच गया। इससे इस जाति के लोग जो अन्य स्थानों में रहते थे वे नष्ट हो गये। पर ये लोग बच गये। किसी समय एशिया, आस्ट्र लिया आदि देश और द्वीपपुआ सब आपस में संलग्न थे। बीच बीच में पृथ्वी के डूब जाने से इन सबको स्थिति की वह दशा हुई जिसमें ये आज-कल देखे जाते है।

अन्दमन के आदिम असभ्य मनुष्य खर्वाकृति-बहुत ठिगने-होते हैं। उन्हें देख कर विदेशियों के मन में हौतूहल उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता। उँचाई में ये लोग 1४ फुट १० इञ्च से अधिक नहीं होते। स्त्रियों की उँचाई पुरुषो से भी तीन चार इन्च कम होती है। तथापि इनका सरीर गँठा हुआ और हृष्ट-पुष्ट होता है।

अन्दमनियों का रङ्ग कोयले के सहश काला, बाल
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घूँ घरवाले और मुखं कान्तिमान होता है। पर उन्हें रूप- वान् नहीं कह सकते। क्योंकि उनकी नाक चौड़ी भौर चिपटी, होंठ काले और आँखें उमड़ी हुई होती है। भौहों की सुन्दरता बढ़ाने के लिए वे उन्हें मुंडा डालते हैं। पर फल इसका उलटा ही होता है। ये लोग प्रसन- चित्त, स्वाधीनता के प्रेमी और शिकार के शौकीन होने हैं। अपनी सन्तान के साथ ये बड़े प्रेम और बड़ी दया का व्यवहार करते हैं। ये बड़े ही सन्तानवत्सल होते है। परन्तु कुछ लोगों का कहना है कि इनमें कृतघ़ता, धोखे- बाज़ी और निर्दयता के भी भाव, कभी कभी, कारणवश, उद्दीप्त हो उठते हैं। अपरिचित आदमियों के साथ इनका व्यवहार अच्छा नहीं होता। ये उन्हें अपना शत्रु समझते हैं और देखते ही उन्हें मार डालने की चेष्टा करने हैं। बहुत पुराने जमाने में यदि कोई जहाज़ इन द्वीपों के किनारे नष्ट हो जाता था तो जहाज़वालों का पता न चलता था कि वे कहाँ गये और उनका क्या हुआ। अनुमान यह है कि जहाजों के अपरिचित आदमियों को अन्दमनी लोग मार डालते थे। इसी से, इस तरह की घटनाओं के बाद, और जहाजवाले इन द्वीपों के पास से निकलते ही न थे। वे लोग इन्हें दूर ही से प्रणाम करके निकल जाते थे। कुछ लोगों का ख़याल है कि प्राचीन काल के मलयद्वोपवासी जलचोर इन द्वीपों के निवासियों
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को जबरदस्ती पकड़ ले जाते और उन्हें गुलाम बनाते या बेच डालते थे। इसी से यहाँ वाले अपरिचित जनों के दुश्मन हो गये हैं। परन्तु ये अनुमान कुछ ठीक नही जंचते क्योंकि अन्दमनी मनुष्य अपनी जाति के भी अपरिचित आदमियो के साथ बुरा बर्ताव करते हैं। अपरिचितों से वैर-भाव रखना इनका स्वभाव ही सा हो गया है।

अन्दमन-द्वीप के मूल निवासी भिन्न भिन्न समुदायो में बंटे हुए हैं। एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय- वालो से बहुत ही कम मिलते-जुलते हैं। यदि कही, देवयाग से, इन लोगों मे मुठभेड़ हो जाती है तो ये बड़े बिना नहीं रहते। ये लोग एक ही भाषा से उत्पन्न हुई कई तरह की बोलियां बोलते हैं। एक समुदाय के मनुष्य दूसरे समुदाय के मनुष्यों की बोली अच्छी तरह वहीं समझ सकते। इसका कारण परस्पर मिल-जुल कर न रहने के सिवा और कुछ नहीं जान पडता।

सभ्य संसार के मनुष्य अन्दमनियो को बहुत समय से जानते हैं। परन्तु इनके विषय में, कुछ समय पहले तक, हम लोगों का ज्ञान भ्रमात्मक था। सन १२९० ईसवी में प्रसिद्ध यात्री मार्को पोलो इन द्वीपों के पास से गुज़रा था। उसने लिखा है कि इन लोगो का सिर मस्तिफ़ कुत्ते के समान बड़ा और पैर बहुत लम्बे होते
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हैं। पर यह बात गलत है। शेक्सपियर के ओथेलो नामक नाटक में ओथेलो ने डेसडेमोना से इन लोगों का जो वर्णन किया है उसमें लिखा है कि ये लोग मनुष्यान हारी हैं। परन्तु यह भी मिथ्या है। बात यह है कि अज्ञात या अल्पज्ञात जातियों के विषय में उस समय लोगों को बहुत कम ज्ञान था। वे उनके विषय में इसी तरह की विचित्र विचित्र बातों की कल्पना कर लिया करते थे। इनमें तथ्य का अंश शायद ही कुछ हो। लोगों ने तो यहाँ तक क्ल्पना कर ली थी कि अन्दमनी लोग मनुष्यो को मार ही नहीं डालते; उन्हें भून कर खा भी जाते हैं। एक बात अवश्य सच है। वह यह है कि ये लोग आने कुटुम्बियो को खोपड़ियो तथा अन्य अङ्गों को हद्धियों को आभूषण के तौर पर पहनते हैं। यह प्रथा इनमें अब तक जारी है। अतएव, सम्भव है, इनकी ऐसी ही ऐसी प्रथायें देखकर प्राचीन काल के सभ्य मनुष्यों ने यह समझ लिया हो कि ये नर-मांसभोजी हैं।

जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, यह खर्वाकार कृष्ण-वर्ण को मनुष्य-जाति बहुत पुरानी है। इसकी उत्पत्ति हुए हज़ारों, नहीं लाखों वर्ष हो चुके होंगे। इनकी भाषा का ठौर ठिकाना नहीं। किसी भी लिपि से ये लोग परिचित नहीं। न ये खेती करना जानते हैं भौर न
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कपड़े बुनना या सीना ही जानते हैं। धातुओं का उपयोग भी इन्हें ज्ञात नहीं। ये लोग रगड़ कर या और किसी तरह आग पैदा करना भी नहीं जानते। दुनिया की असभ्य से भी असभ्य अन्य जातियाँ आग उत्पन्न कर सकती हैं और उसे अपने काम में लाती हैं। पर अन्दमनी लोग आग बनाने के साधनों से नितान्त ही अनभिज्ञ हैं। इसी से जब ये लोग एक जगह से दूसरी जगह जाते है तब अधजली लकड़ी अपने अपने साथ ले जाते हैं। उसी से वे वहाँ जाकर अग्नि जागृत रखते हैं। ये लोग मुकिल से दो तक गिनना जानते हैं। इनमें से विरले ही ऐसे होंगे जो पाँच तक गिनना जानते होंगे। इनकी भाषा में पाँच सबसे बड़ी संख्या समझी जातो है।

अन्दमन द्वीप के मूल-निवासी भी आखिर को मनुष्य ही हैं। सभ्यों के बीच रहने से वे अनेक सभ्यतानुमोदित काम कर सकते हैं। चेष्टा करने से वे पढ़-लिख भी सकते हैं। पोर्ट ब्लेयर में जो गवर्नमेन्ट-हौस है उसमें एक अन्दमनी लैम्प (बत्ती) जलाने के काम पर नौकर है। ये लैम्प बिजली के हैं। वह आदमी इस काम को बहुत अच्छी तरह कर सकता है। यह बात कुछ समय पूर्व की है। मालूम नहीं, वह अब भी इस काम पर है या नही। और लोगो की तरह इस अन्दमनी
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को भी आराम से रहना बहुत पसन्द है। परन्तु सबसे अधिक सुख और आनन्द उसे तब मिलता है जब वह डोंगी पर सवार होकर समुद्र में मछली मारने जाता है अथवा जब वह अपने सजातियों के साथ जातीय नाच में शामिल होता है।

अन्दमनी लोग सभ्य मनुष्यों की बस्ती से दूर भागते हैं। वे वहाँ अपने मन से कभी नहीं जाते। बहुत मनाने फुसलाने से कभी कभी कोई वहाँ चला जाता है। उसे एक लँगोटी पहना कर बस्ती में लाना पड़ता है। अपने जङ्गली निवास स्थलों में ये लोग स्वच्छन्दतापूर्वक न बिचरा करते हैं। स्त्रियाँ अलबत्ते पत्तों का आवरण धारण करती हैं। कपड़े से उन्हें काम नहीं। बेचारी सीना भी नहीं जानतीं। एक बड़े से पत्ते ही से वे अपनी लज्जा का निवारण कर लेती हैं। इनकी कमर में छाल की एक रस्सी सी बंधी रहती है। उसी के सहारे ये पत्ते को बाँध या लटका लेती हैं। इस तरह के पत्ते इन्हें सहज ही मिल जाते हैं। न उनके दाम देने पड़ते और न उन्हें सिलाने के लिए किसी दर्जी ही का मुँह ताकना पड़ता है। अन्दमनी स्त्रियाँ छाल का एक और भी आवरण रखती हैं। उसे वे कमर के दाहने बाँयें, अपने कमरबन्द में बाँधकर लटकाये रहती हैं। इसे वे सिर्फ शोभा के लिए, केवल उत्सवों या त्योहारों के अवसर पर, धारण करती हैं। [ १५८ ]अन्दमनी स्त्री और पुरुष दोनों ही एक प्रकार को विलक्षण गोदना गुदवाते हैं। शङ्ख या सीप आदि के तेज़ टुकड़ो से ये अपने हाथ, पैर या शरीर के और अङ्गों से मांस के छोटे छोटे टुकड़े काट कर फेक देते हैं। ये टुकड़े एक ही सीध में, थोड़ी थोड़ी दूर पर, काटे जाते हैं। कभी कभी कुछ विशेष आकार के भी मांस-खण्ड काट लिये जाते हैं। ऐसा करने से काटी हुई जगह में घाव हो जाते है। घाव अच्छे हो जाने पर उन जगहों का चमड़ा चिकना और मुलायम हो जाता है। उनके रङ्ग में भी कुछ विशेषता आ जाती है। बस, इसी को वे शोभावर्द्धक समझते हैं। यही उनका गोदना है। घावों की जगह ये लोग रंग वगैरह कुछ नहीं भरते। रंगों का ज्ञान ही इन्हें नहीं। वे इनके लिए अप्राप्य भी हैं।

ये लोग बड़े बुशल शिकारी है। शिकार ही से ये अपना जीवन-निवाह करते हैं। जंगली सूअरों को ये लोग तीर या भाले से मारते है। नदियो के मुहानो में ये टरटल नामक मछली का भी शिकार करते है। परन्तु कैसे ? तीर कमान से ! डोंगी पर ये सवार होते हैं। उस के अगले भाग पर, कमान पर तीर चढ़ाकर और अपने शरीर को समतुलावस्था में रखकर, ये निस्तब्ध खड़े रहते हैं। बस, जहाँ पानी के भीतर कही मछली की झलक इन्हें देख पड़ी, तहाँ तत्काल ही इनके कमान
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से तीर छूटता और मछली को छेद देता है। मछली के तीर लगते ही ये झट पानी में कूद पड़ते हैं और तीर सहित मछली को पकड़ लाते हैं। ये लोग बड़े ही अच्छे निशानेबाज़ हैं। शायद ही कभी किसी अन्दमनी का निशाना चूकता होगा। ये लोग तैरने में भी बड़े दक्ष होते हैं। मीलो तैरते चले जाते हैं; कभी थकते ही नहीं।

अन्दमन के मूल निवासी अधिकांश मांसाशी हैं। सुअर के मांस को तो ये रसगुल्ला ही समझते है। इन का सबसे अधिक भोज्य पदार्थ मछली है। वह इनके लिए सुप्राप्य भी है। कीड़े, मकोड़े और छिपकली आदि को भी ये खा जाते हैं। बेर तथा कुछ अन्य जगली फल और शहद भी इनका खाद्य है। खाने की चीज़ों को ये खूब उबालते हैं और गरमागरम ही उड़ा जाते हैं।

अन्दमनी लोगों के पास शस्त्रों की मद में केवल तीर-कमान और भाला ही रहता है। और शस्त्र उन्हें प्राप्य नहीं। चाकू, के बदले सीपियों और शंखों के धार- दार टुकड़े-मात्र होते हैं। उन्हीं से वे काटने और छीलने का काम लेते हैं। पहले तो वे तीरो के फल की जगह केवल एक नोकदार पैनी लकड़ी ही लगाते थे। पर अब वे लोहे के फल काम में लाने लगे हैं। वह लोहा या लोहे के फल उन्हें भारत के उन लोगों से प्राप्त होते हैं
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जो अन्दमन में बस गये हैं। लोगों को पहले ख़याल था कि अन्दमनी असभ्य अपने तीरों को विष में बुझाते हैं। पर यह बात अब मिथ्या सिद्ध हो चुकी है। हाँ, इनके तीरों के घाव विषाक्त ज़रूर हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि जानवरों को मारने के बाद उनके मृत शरीर से निकाले हुए तीरों को ये लोग धोते नहीं। वही यदि मनुष्य के शरीर में प्रवेश करते हैं तो घाव को विषाक्त कर देते हैं। इसी से वह जल्दी अच्छा नहीं होता।

अन्दमनियों की कुछ रीतियाँ बढ़ी ही विचित्र हैं। बहुत दिनों के बाद जब दो मित्र आपस में मिलते हैं तब देर तक ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते और आँसू बहाते हैं। यही उनके हर्ष-प्रकाशन की रीति है। उनको ऐसा करते यदि कोई विदेशी देखे तो उसे यही भासित हो कि इन लोगों पर कोई बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी है। जब दो आदमी एक दूसरे से विदा होते हैं तब वे परस्पर हाथ फूँकते और अपनी भाषा में कहते हैं कि ईश्वर करे तुम्हे कभी सॉप न काटे। इनकी वैवाहिक पद्धति भी बड़ी ही विचित्र है। जब इन लोगों की जाति के वृद्ध पुरुषों को मालूम होजाता है कि कोई युवा और युवती विवाह करना चाहते हैं तब वे एक नई झोपड़ी बनवा कर उसमें वधू को बिठा देते हैं। फिर कुछ आदमी वर की खोज में बाहर निकलते हैं। उसके मिल जाने पर
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वे लोग उससे पूछ पाछ करते हैं। तब वह बहुत लज्जा और सङ्कोच प्रकट करता है और विवाह करने की अनिच्छा प्रकट करता है। वह जंगल को भाग जाता है। वहाँ से उसके मित्र उसे जबरदस्ती पकड़ लाते हैं। और वधू की झोंपड़ी के भीतर ले जाकर उसकी गोद में वर को बिठा देते हैं। यह करके उस जोड़ी को वे उसी झोपड़ी में छोड़ देते है। बस, विवाह-बन्धन पूर्णता को पहुँच जाता है।

ये लोग नाचते खूब है। पर स्त्रियों को नाचने की आज्ञा नहीं। केवल पुरुष ही नृत्योत्सव में शरीक होते हैं। ये लोग हाथ नंचा नचा कर कूदते हुए चक्कर काटते हैं। यही इनका नाच है। नृत्य के समय इनकी स्त्रियाँ पंक्ति बाँध कर वहीं बैठ जाती हैं और अपनी रानों पर हाथ पटक पटक कर ताल देती रहती हैं। इनके नाच में एक नेता या सूत्रधार होता है। वह, बीच बीच में, अपने पैर की ऐंडी से, लकड़ी के एक ढोलक पर, टड्कर-शब्द करता जाता है। वह बीच में रहता है। नर्तक उसी के चारों ओर नाचते हुए चक्कर काटते है। नाचते समय ये लोग मुंह से नाना प्रकार के चित्र-विचित्र शब्दं करते रहते हैं। उसी को यदि, आप इनका गायन कहना चाहें तो कह सकते हैं।

अन्दमनियों के धर्म्म की कुछ भी और-ठिकाना
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नहीं। न तो वे किसी प्रकार की पूजा-अर्चा या प्रार्थना ही करते हैं और न बलिदान ही देते हैं। पर ये किसी को ईश्वर जरूर मानते हैं। इनका ख़याल है कि दण्ड देने के लिए वही आंधी चलाता है। स्मुद्र, वन, नदी आदि को भी ये एक प्रकार के देवता समझते हैं। उन सबकी अधिष्ठात्री आत्माओ में ये देवत्व की कल्पना करते हैं; परन्तु उनकी पूजा-अर्चा ये नहीं करते। पानी में अपनी परछाई देखकर ये समझते हैं कि इन्हें अपनी आत्मा दिखाई दे रही है। इनका विश्वास है कि मरने के बाद इनकी आत्मायें किसी अज्ञात जगह में वास करती हैं। परन्तु इनकी भावी दण्ड या फल-प्राप्ति का विचार कभी सताता या आनन्दित नही करता। इन लोगों में जितने किस्से या कहानियाँ प्रचलित हैं वे सब बहुत पुरानी जान पड़ती हैं। उनसे सूचित होता है कि इनका देश किसी समय समुन्द्र-गर्भ में निमग्न था। सम्भव है, जैसा कि एक जगह ऊपर लिखा जा चुका है, किसी अज्ञात काल में इनका देश एशिया-महाद्वीप से जुड़ा रहा हो और पीछे से समुद्र में डूब गया हो। इनकी कल्पना है कि आग पहले-पहल आकाश से प्राप्त हुई थी। कह नहीं सकते, पर शायद इनकी कहानियाँ किसी ज्वालामुखी पर्वत के स्फोट या बिजली गिरने से सम्बन्ध रखती हों।

अन्दमनियों की जाति एक ऐसी जाति मालम होती
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है जिसकी उत्पत्ति का पता न तो किसी इतिहास ही से मिलता है और न कथा-कहानियों ही से, अनुमान किया जा सकता है। इनकी प्राचीनता के मुकाबले में ईजिप्ट- वालों की प्राचीनता अभी कल की जान पड़ती है। अँगरेज़ी गवर्नमेन्ट इस जाति को जीवित रखने की बहुत चेष्टा कर रही है। पर उनके प्रयत्न सफल होते नही देख पड़ते। क्योंकि इनकी संख्या दिन पर दिन घटती ही चली जा रही है। इस समय इस जाति के मनुष्यों की संख्या दो हजार से भी कम ही रह गई है। इन लोगों को बड़ी ही विचित्र बीमारियाँ हो जाती है। वे दवा-पानी से नहीं अच्छी होती। इनमें कुछ ऐसी विशेषता है कि इनके सन्तति कम होती है। बिरले ही घरों से बाल- बच्चे दिखाई देते हैं। इनके हृास का सबसे बड़ा कारण यही है। डर है कि सौ दो सौ वर्ष मे इस परम प्राचीन नेग्रिटो-जाति का कहीं अन्त ही न हो जाय।

[दिसम्बर १९२६

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।