पुरातत्त्व प्रसंग/प्रस्तावना
साहित्य-मणि-माला-मणि ७
पं० महावीरप्रसाद द्विवेदी
साहित्य सदन,
चिरगाँव ( झॉसी)
१९८६
प्रथमावृत्ति
मूल्य
श्रीरामकिशोर गुप्त द्वारा साहित्य प्रेस,
चिरगांव (झाँसी) में मुद्रित,
तथा साहित्य सदन, चिरगाँव (झांसी)
द्वारा प्रकाशित ।
भारत जिस गति या दुर्गति को इस समय, नहीं, बहुत पहले ही से, प्राप्त हो रहा है, उसका कारण दैव दुर्विपाक नहीं। कारण तो स्वयमेव भारत ही की अकर्म्मण्यता है। जिस भारत ने समुद्र पार दूरवर्ती देशों और टापुओं तक में अपने उपनिवेश स्थापित किये, जिसने दुर्ल्लन्घ्य पर्वतों और पार्वत्य उपत्यकाओं का लंघन करके अन्य देशों पर अपनी विजय-वैजयन्ती फहराई और जिसने कितने ही असभ्य और अर्द्ध-सभ्य देशों को शिक्षा और सभ्यता सिखाई, वही भारत आज औरों का मुखापेक्षी हो रहा है। जिस भारत के जहाज महासागरों को पार करके अपने वाणिज्य की वस्तुओं से दूसरे देशों को पाटते रहते थे वही भारत आज सुई और दियासलाई तक के लिए विदेशों का मुहताज हो रहा है। यह सब उसी के कृत कर्मों का परिपाक है। बेचारे दैव का इसमें क्या दोष? महाकवि भारवि ने लिखा है--
द्विपन्निमित्ता यदियं दशा ततः समूलमुन्मूलयतीव मे मनः।
परैरपर्य्यासितवीर्य्यसम्पदां पराभवोऽप्युंत्सव एव मानिनाम्॥
दूसरों ने नहीं कर डाला वे यदि दैवयोग से, विपत्ति- ग्रस्त हो जायँ तो विशेष परिताप को बात नहीं। ऐसी दशा में तो सन्तोष मनाने के लिए भी जगह रहती है। तब तो यह भी कहा जा सकता है कि बात उपाय के बाहर थी, क्या करें; लाचार होना पड़ा। परन्तु जिनका पराभव उन्ही की मूर्खता और बेपरवाही के कारण दूसरों के द्वारा हो जाता है उन्हें तो डूब मरना चाहिए। वे तो मुँह दिखाने लायक भी नहीं रह जाते। उनकी दुर्गति देख कर तो कलेजा मुँह को भाता है।
इस संग्रह में कुछ ऐसे लेखों का प्रकाशन किया जाता
है जिनसे भारत के प्राचीन गौरव की धूमिल-सी, कुछ थोड़ी,
झलक देखने को मिलेगी। कहाँ कम्बोडिया, कहाँ सुमात्रा
और नावा आदि द्वीप और कहाँ तुर्किस्तान तथा अफगा-
निस्तान। पर किसी समय, वहाँ सर्वत्र भारतीयों ही
की सत्ता और प्रभुता का प्रभाकर देदीप्यमान था। इन
लेखों के पारायण से और कुछ नहीं.तो हमें अपने पूर्व-
रूप का कुछ तो आभास अवश्य ही मिल सकता है।
अतएव यदि इस संग्रह से और कोई लाभ न हो तो भी
इसका प्रकाशन निरर्थक नहीं माना जा सकता। यदि हमें
इससे इतने ही ज्ञान की प्राप्ति हो जाय कि हमारा भूत-
कालिक गौरव सी और कितना था तो, इसी को बहुत
सक्षना चाहिए। सामयिक पुस्तकों की जिला में विखरे.
पड़ेहने से इन लेखों की प्राप्ति सुलभ न थी। इसील
इन्है, इस रूप में, एकत्र प्रकाशित करना पड़ा। जो अपनी
वर्तमन दुःस्थिति में भी अपनी पूर्वकथा नहीं सुनना चाहते
वे चाहे तो इस संग्रह के केवल अन्तिम तीन लेखों से
अपना तनोरञ्जन ही कर लेने की उदारता दिखावें।
भिन्नात्मा समझे जाने के कारण कुछ अन्य लेखकों के लेख भी इसमें शामिल कर लिये गये हैं।
दौलतपुर (रायवरेली)महावीरप्रसाद द्विवेदी
२ जनवरी १९२९
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