सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(३३४) आंध देश में मिला है जिसमें वह पल्लव राजवंश का मूल पुरुष कहा गया है और उसके नाम के साथ सामंतों वाली "महाराज" की उपाधि दी गई है और उसका वर्णन इस प्रकार किया गया है कि यद्यपि वह ब्राह्मणों के सर्वोच्च लक्षणों से युक्त (परम ब्रह्मण्य ) था, तथापि उसने क्षत्रिय का पद प्राप्त किया था। और इस प्रकार वह भार-शिव साम्राज्य का एक सदस्य और अंग था और उसे उप-राज का पद प्राप्त था। स्वयं आंधू देश में इससे पहले और कोई नाग वंश नहीं था। वहाँ तो इक्ष्वाकु लोग थे और उनसे भी पहले सातवाहन थे 1 १. परमब्रह्मण्यस्य स्वबाहुबलान्जितक्षात्रतपोनिधेर्विधिविहितसर्व- मर्यादस्य । एपिग्राफिया इंडिका १, ३६८ ( दर्शी-वाले ताम्रलेख )। यहाँ महाराज को वीरकोर्च वर्मन कहा गया है। यही वह सबसे पुराना अभिलेख है जिसमें उसका नाम आया है । २. कृष्णा जिले में बृहत् पलायनों का एक वंश था ( एपि० ई० ६, ३१५) और इस वंशवाले कदाचित् इक्ष्वाकुओं के अथवा प्रारं- भिक पल्लवों के सामंत थे । जयवर्मन् वृहत् पलायन के पहले या बाद में उसके वंश का और कोई पता नहीं मिलता। इसके ताम्रलेखों के अक्षर पल्लव युवराज शिवस्कंद वर्मन् के ताम्रलेख के अक्षरों से मिलते हैं (एपि० ई०, ६,८४)। यहाँ यह एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या बृहत् फल से प्रसिद्ध दक्षिणी वंश वृहत्-बाण का ही अभिप्राय तो नहीं है, क्योंकि बाण के अग्र भाग को भी फल ही कहते हैं ? मयूर शर्मन् के समय में वृहत् बाण लोग पल्लवों के सामंत थे ( एपि० ई०, ८, ३२)। जान पड़ता है कि कदाचित् "बाण" और "फल" दोनों ही शब्द किसी तामिल शब्द के अनुवाद हैं ।