पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३९३

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इसीलिये दक्षिण में उसे अपनी तथा वाकाटक साम्राज्य की स्थिति दृढ़ करने का यथेष्ट समय मिला था। प्रवरसेन प्रथम के शासन-काल के आधे से अधिक दिनों तक वह उसका समकालीन था। हमें यह मान लेना चाहिए कि उसने कम से कम पैंतीस वर्षों तक राज्य किया था क्योंकि उसके शासन-काल के तेंतीसवें वर्ष तक का तो उल्लेख ही मिलता है। उसके बाद हमें उसके पुत्र सिंहवर्मन् प्रथम के शासन का एक उल्लेख मिलता है और उसके दूसरे पुत्र विष्णुगोप के गवर्नर होने का उल्लेख मिलता है परंतु उसके पौत्र स्कंदवर्मन तृतीय का हमें कोई उल्लेख नहीं मिलता, और स्कंदवर्मन् तृतीय के उपरांत विष्णुगोप प्रथम का पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी हुआ था, इसलिये हम कह सकते हैं कि स्कंदवर्मन तृतीय ने बहुत ही थोड़े दिनों तक राज्य किया होगा। जान पड़ता है कि समुद्रगुप्त ने अपने राज्याभिषेक से पहले ही विष्णुगोप को परास्त किया था और उस समय की प्रसिद्ध प्रथा के अनुसार उसने अपने पुत्र के पक्ष में राजसिंहासन का परित्याग कर दिया था और वह कभी कानूनी दृष्टि से महाराज नहीं हुआ था, और इसका अर्थ यह है कि यद्यपि उसने राज-कार्यों का संचालन तो किया था, परंतु राज-पद पर अभिषिक्त होकर नहीं किया था। अतः इस वंश के राजाओं का कालनिरूपण इस प्रकार होता है- १. वीरकूर्च कुमार विष्णु (कांची में) लगभग सन् २६५-२८०ई० २. (शिव) स्कंदवर्मन प्रथम २८०-२६५ ३. वीरवर्मन २६५.२६७ ४. (विजय)स्कंदवर्मन द्वितीय २६७-३३२ ५. सिंहवर्मन् प्रथम ३३२-३४४ ६. स्कंदवर्मन् तृतीय ३४४-३४६ " > ... " " " .. 09 " "