( ५७ ) हुए नव नाग था। यद्यपि स्कंद के साथ तो मोर का संबंध है, पर भीम के साथ उसका कोई संबंध नहीं है, वीरसेन मथुरा तक, बल्कि उससे भी और आगे इंदौरखेड़ा तक पहुँच गया था, क्योंकि वहाँ भी उसके बहुत से सिक्के जमीन में से खोदकर निकाले गए हैं। जिससे सूचित होता है कि बुंदेलखंड के जिस पश्चिमी भाग पर प्रायः सौ वर्ष पहले नागों को हटाकर कुशनों ने अधिकार कर लिया था, उस पश्चिमी बुंदेलखंड पर भी वीरसेन ने फिर से नाग- वंश का राज्य स्थापित करके उसे अपने अधिकार में कर लिया था ६२८. पुराणों में जो "नव-नाग" पद का प्रयोग किया गया है, वह समझ-बूझकर किया गया है क्योंकि यदि वे उन्हें भार- शिव कहते अथवा स्वयं अपने रखे वैदिशक अथवा वृष नाग आदि नामों से अभिहित करते तो यह पता न चलता कि ये नामों के ही अंतर्गत थे और इन्होंने फिर से अपना नवीन राजवंश चलाया था और न यही पता चलता कि बीच में कुशनों का राज्य स्थापित हो जाने के कारण इस वंश की श्रृंखला बीच से टूट गई थी और उस दशा में व्यर्थ ही एक गड़बड़ी खड़ी हो जाती। विंध्य का अर्थात् वाकाटकों के साम्राज्य का वर्णन करने के उपरांत पुराणों में इस प्रकरण का अंत कर दिया गया है और गुप्तों के राजवंश तथा उनके साम्राज्य का वर्णन आरंभ करने से पहले नव-नागों का इतिहास समाप्त कर दिया गया है। ऐसा करने का कारण यह था कि शिशुक रुद्रसेन की स्थिति कुछ विलक्षण थी। वह यधपि प्रवरसेन वाकाटक का पोता था, तो भी वह भारशिवों के दौहित्र के रूप में सिंहासन पर बैठा था। ६. कनिंघम A.S. I. खंड १२, पृ० ४१-४२ ।
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