पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१३४

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अजातशत्र। (सहसा विष्टक का प्रवेरा) - विरुद्धक-"मावा, पन्दना करता हूँ। भाई अजात ! क्या तुम विश्वास करते हो। मैं साहसिफ हो गया है, किन्तु मैं मी राजपुत्र हूँ। और हमारा सुम्हारा ध्येय एफही है।" अजास०-"तुम्हें ! कमी नहीं, तुम्हारे पड़यन्त्र से समुद्रदय __ मारा गया, और " विरुसक-" और कोशलनरेश को पाफर भी मेरे कहने से छोड़ दिया क्यों ? यदि मेरो मन्त्रणा लेते वा आज सुम मगध पर और मैं फोशल में सम्राट होकर सुख भोगता। किन्तु, उस दुष्टा मल्लिका ने तुम्हें " अजात-"हाँ उसमें तो मेरा ही दोप था। किन्स अब सो मबंध और कोशल मापस में शत्रु हैं, फिर हम तुम पर विश्वास क्यों करें। विरुदफ-'फेवल एक पात विश्वास करने को है। यही कि तुम कोरान नहीं थाहते और मैं काशी सहित मगघ नहीं चाहता। देखो, सेनापति कारायण ही कोशल की सेना का नेता है। पह मिला हुभा है, और विशाल सम्मिलित वाहिनी क्षुब्ध समुद्र के समान गजेन कर रही है। मैं खालेकर शपय करता हूँ कि कौशा- म्यी की सेना पर मैं प्राक्रमण फलंगा और दीर्घफारायण के कारण खो निर्यस्ल कोशल सेना है उस पर तुम, जिसमें सरह विश्वाम यना रहे । यही समय है, विलम्ब ठीक नहीं।" १७०.