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तुम चले ही गये प्रियतम
हृदय में प्रियछवि नहीं ली।
व्यर्थ ऋतु के दृश्य-दर्शन,
व्यर्थ यह रचना रसीली।
खुले उर की प्रेमिका की
गन्ध का वाहक नहीं अब,
मुक्त-नयना सङ्गिनी का
पथिक परिचायक नहीं अब;
खुली जो मुरझा चली कलि,
बँधी छवि हो गई ढीली।
बरसने को गरजते थे
वे न जाने किस हवा से
उड़ गये हैं गगन में घन,
रह गये हैं नयन प्यासे,
उड़ रही है धूल, धाराधर,
धरा होगी न गीली।
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