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पृष्ठ:अणिमा.djvu/१४

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उन चरणों में मुझे दो शरण।
इस जीवन को करो हे मरण।
बोलूँ अल्प, न करूँ जल्पना,
सत्य रहे, मिट जाय कल्पना,
मोह-निशा की स्नेह-गोद पर
सोये मेरा भरा जागरण
आगे-पीछे दाँयें-बाँयें
जो आये थे वे हट जायें,
उठे सृष्टि से दृष्टि, सहज मैं
करूँ लोक-आलोक-सन्‍तरण।

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