पृष्ठ:अणिमा.djvu/३०

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स्वप्न एक आँखों में, मन में लक्ष्य एक स्थिर,

पार उतरने की संसृति में एक टेक चिर;

अपनी ही आँखों का तुमने खींचा प्रभात,

अपनी ही नई उतारी सन्ध्या अलस-गात,

तारक-नयनों की अन्धकार-कुन्तला रात

आई, सुरसरि-जल-सिक्त मन्द-मृदु बही बात,

कितनी प्रिय बातों से वे रजनी-दिवस गये कट,

अन्तराल जीवन के कितने रहे, गये हट,

सहज सृजन से भरे लता-द्रुम किसलय-कलि-दल,

जगे जगत के जड़ जल से वासन्तिक उत्पल,

पके खेत लहरे, सोना-ही-सोना चमका,

सुखी हुए सब लोग, देश में जीवन दमका,

हुआ प्रवर्तन, खुली तुम्हारी ही आँखों से

उड़ने लगे विहग ज्यों युवक मुक्त पाँखों से

खोये हुए राह के, भूले हुए कभी के

बढ़े मुक्ति की ओर भाव पा अपने जी के ।

फूटा ग्रीष्म तुम्हारे जीवन का, दिङमाराडल