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वर्तमान की ओर बढ़ी।
अपने में निश्चल
युगप्रवर्तक, हुए शीत में व्याधि से विकल,
रहा साथ मैं नतमस्तक, सेवा को; अग्रेँज,
चले गये तुम धरा छोड़ गौरव-विजय-ध्वज!

१९४०