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उद्बोधन
दूर करो भ्रम-भास,
खोलो ये पलकें,
खुला सूर्य, खुला दिगाकाश।
खुले हुए राजपथ
स्थल-जल-व्योम के,
चलते हैं अविरत
यात्री भी सोम के,
जान ले हथेली में,
धात्री तुम्हारी किन्तु
गाँव की वसुन्धरा
आज भी पहेली में
खड्ढों से भरी हुई
हो रही है प्राणहरा
यदि यान-वाहनों की
मन्द हो रही है चाल,
प्रगति में तुम्हारे यदि