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पृष्ठ:अणिमा.djvu/६६

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तुम्हीं हो शक्ति समुदय की,
तुम्हीं अनुरक्ति संचय की।

तुम्हारी दृष्टि ही है—
ज्ञान से जड़ का हुआ सागर,
मथा फिर देव-असुरों ने
समझकर रत्न का आकर,
पिया विष विष्णु के ही अर्थ
शंकर ने अमरता-भर,
जहाँ से आय है निश्चित
जहाँ से बुद्धि है व्यय की।

कथा के स्रोत का उत्थान
तुमसे है, पतन तुमसे;
विषय-स्पष्टीकरण तुमसे,
प्रलम्बित आहरण तुमसे;
तरङ्गों का विताड़ित भाव,
अर्थ-न्यास-धन तुमसे,
मिलन तुमसे, विरह तुमसे,
व्यथा उत्थान की, लय की।

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