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११४ :: अदल-बदल
 


मानो उसकी रगों में रक्त नहीं--बर्फ का पानी भरा हुआ है। यह जितना ही प्रसन्न और उत्साहित रहने की चेष्टा करता उतनी ही उसकी चेष्टायें हास्यास्पद और वीभत्स बन जाती थीं। अपनी साध्वी सुशीला पत्नी विमला देवीके प्रति अपने किए सब अन्याय मूर्तिमान होकर, जितना वह उन्हें भुलाना चाहता था--उतना ही उसके सम्मुख उसके मानस नेत्रों में आ घुसते थे। उसकी दशा मद्यप, उन्मत्त तथा शोकार्त मनुष्य के समान हो रही थी। उसे स्पष्ट सुनाई दे रहा था कि उसकी पुत्री चीत्कार करके बाबूजी-बाबूजी पुकार रही है। इस समय वह मायादेवी की ओर आंख उठाकर भी देखने का साहस न कर सकता था।

मायादेवी की दशा भी कुछ ऐसी ही थी। उसका मन हाहाकार कर रहा था। उसकी इच्छा हो रही थी कि गले में फांसी लगाकर मर जाए। विवाह काल में कुछ लोगों ने अशिष्ट व्यंग्य किया था--वह अब सैकड़ों बिच्छुओं की भांति डंक मारकर उसे तड़फा रहा था।

वह छिपी नजर से बीच-बीच में अपने नये पति की ओर देख लेती थी। उसे याद आ रहा था--यही वह आदमी है जो क्लब में मेरे सामने ही शराब पीता था। इस समय मायादेवी को इस नये पति के चेहरे में ऐसे अप्रिय और घृणा-उत्पादक भाव दीख रहे थे कि उसका मन उसके सामने से भाग जाने का हो रहा था। वह सोच रही थी--अपने त्यागे हुए पति की बात। आज तक कभी उन्होंने एक कड़ा शब्द उससे कहा नहीं, कभी उसने उनका क्रोध से भरा चेहरा देखा नहीं। कभी उसके पति ने शराब छुई नहीं। वह सदा अपनी सारी आमदनी उसीको देते। उसकी एक प्रकार से पूजा करते। वह सोचने लगी अपनी पहली सुहागरात की बात--फिर उसने आप-ही-आप भुनभुना कर कहा--'क्या यह आज की रात भी सुहागरात कही जा सकती है? क्या यह शराबी,