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मरम्मत ::१३३
 


हैं और उनकी अच्छी तरह मरम्मत करके उनके इस टपंकते हुए प्रेम को हवा कर देने की उसने प्रतिज्ञा कर ली। उसने अपनी सहायता के लिए घर की युवती दासी दुलारी को मिलाकर सब प्रोग्राम ठीक-ठाक कर लिया।

उस दिन राजेन्द्र पिता के साथ देहात में जमींदारी के कुछ जरूरी झंझट सुलझाने गए थे। घर में गृहिणी, नौकर-नौकरानी ही थीं। गृहिणी पुत्री को इतना स्वतन्त्र देखकर बड़बड़ाती तो थीं, पर कुछ रोक-टोक नहीं करती थीं। दिलीप के साथ रजनी निस्संकोच बातें करती है, बैठी रहती है, ताश खेलती है, चाय पीती है, इन सब बातों को उनका मन सहन कर गया था। वह साधारण पढ़ी-लिखी स्त्री थीं, पर पुत्री ने कालेज की शिक्षा पाई है, यह वह जानती थीं, डरती भी थीं। फिर रजनी सुनती किसकी थी!

दिलीप को राजेन्द्र ने साथ ले जाने को बहुत जिद की थी, पर वह बहाने बनाकर नहीं गया। जब वह बहाने बनाकर असमर्थता दिखा रहा था, तब रजनी उसकी ओर तिरछी दृष्टि करके मुस्करा रही थी। उसका कुछ दूसरा ही अर्थ समझकर दिलीप महाशय आनन्दविभोर हो रहे थे। प्रगल्भा रजनी अपनी इस विजय पर मन-ही-मन हंस रही थी।

दिनभर मिस्टर दिलीप ने बेचैनी में व्यतीत किया। उस दिन उसने अनेक पुस्तकों को उलट-पुलट डाला। मन में उद्वेग को शमन करने और संयत रखने के लिए उन्होंने बड़ा ही प्रयास किया। अन्ततः उन्होंने खूब सोच-समझकर रजनी को एक पत्र लिखा।

रजनी उस दिन दिल जलाने को दो-चार बार उनके कमरे में घूम गई। एकाध बार वचन बाण भी मारे, मुस्कराई भी। बिल्ली जिस प्रकार अपने शिकार को मारने से पहले खिलाती है उसी