पृष्ठ:अदल-बदल.djvu/१४

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दोनों के शरीर और आत्मा समान हैं, मैं कहूंगा हरगिज़ नहीं। स्त्री-पुरुष कभी समान नहीं। दोनों सदा असमान रहेंगे। और उनके समान बनने की चेष्टा करना संसार में आफत लाने का कारण होगा। यहां मैं यह नहीं कहता कि स्त्री छोटी और पुरुष बड़ा है। स्त्री तुच्छ और पुरुष श्रेष्ठ है। मैं तो केवल यह कहता हूं कि दोनों पृथक् वस्तु हैं---अपने-अपने स्थान पर प्रत्येक का महत्त्व है। उसी स्थान पर प्रत्येक को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।

उपर्यक्त पत्र में दो बातें मुझे मालूम पड़ीं। एक यह कि ये आदरणीय महिला अपने दिमाग में उस पश्चिमी जहरीली हवा को थोड़ा-बहुत भरे हुए हैं जो स्त्री जाति को असहाय बना रही है। हम क्यों पुरुष के अधीन रहें, क्यों प्रसव करें, इससे स्वास्थ्य और यौवन नष्ट होता है, चैं-पैं पल्ले बंधती है। हमारा विवाह का उद्देश्य यह है कि पति रुपये का ढेर कमाकर हमें दे। मोटर हो, बंगला हो, पति प्रतिक्षण पालतू कुत्ते की भांति दुम हिलाता हमारे चारों तरफ जिमनास्टिक के जैसी कसरत करता रहे, रंग-बिरंगी साड़ी लाए, पहनाकर देखे। इसके बाद सब दरवाजे बन्द करके गड़प अन्धकारपूर्ण कमरे में दोनों परस्पर के शरीर और प्रेम को खूब खाएं और जो बचे, सो बिखेरें। स्त्रियां समझती हैं कि पति के रत्ती-रत्ती प्रेम पर, शरीर पर, सम्पत्ति पर, सर्वस्व पर, सिर्फ हमारा ही अधिकार है।

मैं स्त्रियों के इस पागलपन के दावे को कतई खारिज करता हूं। पहली बात तो यह है कि पति-पत्नी को अपनासम्पूर्ण प्रेम एक- दूसरे ही में नही खर्च करना होगा, उसके दावेदार, हिस्सा बटाने वाले और भी हैं। गृहस्थ एक वृक्ष है, जिसमें सैकड़ों शाखाएं और फल हैं, दम्पति सबका केन्द्र है। स्त्री और पुरुष को मिलकर अपना सर्वस्व का भाग परिजनों को भी देना है, देश और मनुष्य