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१४४ :: अदल-बदल
 

'वह जब मुझे देखती है मुंह फेरकर हंस देती है।'

'वह शायद समझती है, तुम जैसा पुरुष पृथ्वी पर और नहीं है।'

'अब जब आप क्षमा कर चुकीं, फिर ऐसी बात क्यों कहती हैं?

रजनी हंसकर चल दी।

दूसरे दिन राजेन्द्र ने आने पर देखा कि दिलीप अपना बोरिया-बसना बांधे जाने को तैयार बैठे हैं। मुंह उतरा हुआ है और वे बुरी तरह घबराए हुए हैं। राजेन्द्र ने हंसकर कहा---'मामला क्या है? बुरी तरह परेशान हो रहे हो।'

'तार आया है 'माताजी सख्त बीमार हैं। जाना पड़ रहा है।'

'देखें, कैसा तार है? अभी तो दो-चार दिन भी नहीं हुए।'

दिलीप तार के लिए टाल-टूल करके घड़ी देखने लगे। बोले--- 'अभी चालीस मिनट हैं, गाड़ी मिल जाएगी।'

दिलीप के जाने की एकाएक तैयारी देखकर राजेन्द्र परेशान-से हो गए। उन्हें दिलीप की टाल-टूल से सन्देह हुआ कि शायद घर में कोई अप्रिय है।

उन्होंने रजनी को बुलाकर पूछा---'रजनी, दिलीप जा रहे हैं, मामला क्या है?

रजनी ने आकर सिर से पैर तक दिलीप को देखकर कहा--- 'कह नहीं सकती, दुलारी को बुलाती हूं, उसे शायद कुछ पता हो।'

दिलीप ने नेत्रों में भिक्षा-याचना भरकर रजनी की ओर देखा। उसे देखकर रजनी का दिल पसीज गया। उसने आगे बढ़कर कहा- --'क्यों जाते हो दिलीप बाबू।'

दिलीप की आंखें भर आईं। उसने झुककर रजनी के पैर छुए और कहा---'जीजी, सम्भव हुआ तो मैं फिर जल्दी ही