रही यह। कैसे वह एकाएक आई, और भाग गई। क्या यह सब कुमुद की कारस्तानी नहीं थी? पर कैसी भद्दी, कैसी वाहियात बात है। ये लोग भी क्या कहेंगे। यह सोचते-सोचते उन्होंने आंख उठाकर दबी नजर से अपने मुवक्किलो को देखा, और फिर उनकी दृष्टि नाश्ते की तश्तरी पर जाकर अटक गई।
एक मुवक्किल ने कहा--'वकील साहब, आप पहले नाश्ता कर लीजिए, यह काम तो होता ही रहेगा।'
वकील साहब अब भी आपे से बाहर थे। उनके मन में एक द्वन्द्व मच रहा था। वह अकारण ही हंस पड़े, पीछे अपनी हंसी से स्वयं चौंक भी पड़े। उन्होंने नाश्ते की तश्तरी की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा--'आप लोगों के लिए भी कुछ मंगवाया जाए?'
'जी नहीं, आपकी कृपा है।'
वकील साहब नाश्ता कर फिर कागज देखने-भालने लगे। पर उनका मन काम में लगा नहीं। वह मुवक्किलों को बिदा कर भीतर आए। देखा, कुमुद की आंखें चुपचाप हंस रहीं और होंठ रह-रहकर फड़क रहे हैं।
उन्हें देखते ही कुमुद खिलखिलाकर हंस पड़ी। राजेश्वर ने कहा--'यह क्या बेवकूफी की?'
'कहिए, नाश्ते में स्वाद आया?'
'उसे वहां भेजा क्यों?
'क्या वह अच्छी नहीं लगी?'
'पर वहां भेजना सरासर बेवकूफी थी।'
'पर थी मज़ेदार।' कुमुद फिर हंस दी।
वकील साहब कुर्सी पर बैठकर बोले--'यह ठीक नहीं किया, वहां बहुत लोग थे।'
'वे क्या उसके ससुर थे?