'तब में जहर खाकर प्राण त्याग दूंगी।'
'ना जीजी, यह क्या कहती हो?'
'तुझे नित्य इसी भांति आना पड़ेगा।'
'परन्तु....।'
'मेरे दम में दम है, वहां तक कोई तुझे छू भी न सकेगा आंख उठाकर भी न देख सकेगा।'
'मैं आऊंगी जीजी।' किशोरी जोर से रोकर कुमुद से लिपट गई। कुमुद रोई नहीं। वह कुछ देर चुपचाप उसे छाती से लगाए खड़ी रही। इसके बाद उसने, उसे कुर्सी पर बैठाकर कहा---'अब यहीं नहा लें, फिर भोजन कर घर चलेंगे। मैं माता जी को कहलाए देती हूं।'
कुमुद ने यही किया। वकील साहब बिना भोजन किए ही कचहरी में भाग गए। कुमुद ने भी कुछ भोजन नहीं किया। किशोरी ने नाममात्र को खाया। इसके बाद कुमुद किशोरी के घर जाकर उसे छोड़ आई। उस दिन संध्या तक वह वहीं रही। चलती बार एकांत पाकर उसने किशोरी के पैर छूकर कहा---'किशोरी, मेरी इज्जत तेरे हाथ है। तूने वचन दिया है, पूरा करना।'
किशोरी ने कुमुद की गोद में मुंह छिपाकर कहा---'यह क्या कहती हो जीजी, प्राण जाएं पर वह बात मुंह से न निकलेगी।'
कुमुद ने व्याकुल दृष्टि से उसे ताकते हुए कहा---'उनसे साक्षात् होने पर तुझे उसी भांति बोलना और व्यवहार करना पड़ेगा जिस भांति अब तक करती रही है।'
किशोरी ने आंखों में आंसू भरकर कहा---'मैं करूंगी जीजी।'
कुमुद उसे छाती से लगा और प्यार करके घर चली आई।