पृष्ठ:अदल-बदल.djvu/३

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मेरी एक परम आत्मीय महिला ने मुझे एक पत्र लिखा । उसमें वे लिखती हैं --

आप सचमुच बड़े निर्दयी हैं । आप यदि मेरे कष्ट का कुछ भी अनुमान कर पाते तो कदापि ऐसा न लिखते कि 'भाग' खड़ी हुई । कौन ऐसी अभागिन होगी, जो अपने प्रिय बन्धुओं को तजकर'पर-घर',जहां स्वार्थ भावना को छोड़ और कुछ भी नहीं,जाना पसन्द करे । हमारा'अपना घर'तो वही है,जहां हम स्वच्छन्दता से बिना आडम्बर और मर्यादा के हंसते-खेलते रहते और काम करते हैं । इस'पर-घर'नामक पिंजरे में कष्ट के सिवा कुछ नहीं, फिर मेरी गिनती तो उन अभागिनियों में है, जो अन्नवस्त्र के मोल में किसीका दासत्व स्वीकार करती हैं । आप विश्वास कीजिए,विवाह के पूर्व मैं इतनी सुन्दर थी कि आप विश्वास नहीं कर सकते । अपना विवाह करके मैंने अपने को सब सुखों से रहित बना लिया । बड़ी-बड़ी भावनाएं लेकर मैं उत्पन्न हुई और बढ़ी । जीवन सयाना होता गया और मैं सोने की लंका का स्वप्न अधिकाधिक निकट देखती गई । पर अन्त में वह सब मृग-मरीचिका की भांति लोप हो गया । फिर भी मैंने सन्तोष किया, सोचा कि मेरे लिए सब सांसारिक वस्तु अलभ्य हैं । फिर क्यों इनके पीछे जान खपाऊं । परन्तु ज्यों-ज्यों मैंने सन्तोष से काम लिया,उनकी उछृखलता बढ़ती ही गई । कहिए तो -- क्या मैं पशु हूं ? मेरी इच्छाएं क्या इच्छाएं नहीं हैं ? वे मुझसे ग्यारह वर्ष बड़े हैं । मैं क्या वृद्धा हूं ? वे अपने रस-रंग में रहें और मैं सिपाहियों और चपरासियों से बातचीत करके दिन काटूं ! यदि मैं अयोग्य हूं तो इसमें