कैसा आनन्द है, कैसा उल्लास है, कैसा विनोद है! परन्तु जब उसने अपनी हीनावस्था का वहां आनेवाली प्रत्येक महिला से मुकाबला किया तो लज्जित हुई। उसने दरिद्र, निरीह पति से लेकर घर की प्रत्येक वस्तु को अत्यन्त नगण्य, अत्यन्त क्षुद्र, अत्यन्त दयनीय समझा, और वह अपने ही जीवन के प्रति एक असहनीय विद्रोह और असन्तोष-भावना लिए बहुत रात गए घर लौटी।
मास्टर साहब उसकी प्रतीक्षा में जागे बैठे थे। प्रभा पिता की कहानियां सुनते-सुनते थककर सो गई थी। भोजन तैयार कर,आप खा और प्रभा को खिला, पत्नी के लिए उन्होंने रख छोड़ा था।
माया ने आते ही एक तिरस्कार-भरी दृष्टि पति और उस शयनगार पर डाली, जो उसके कुछ क्षण पूर्व देखे हुए दृश्यों से चकाचौंध हो गई थी। उसे सब कुछ बड़ा ही अशुभ, असहनीय प्रतीत हुआ। वह बिना ही भोजन किए, बिना ही पति से एक शब्द बोले, बिना ही सोती हुई फूल-सी प्रभा पर एक दृष्टि डाले चुप-चाप जाकर सो गई।
मास्टर साहब ने कहा---'और खाना?'
'नहीं खाऊंगी।'
'कहां खाया?'
'खा लिया।'
और प्रश्न नहीं किया। मास्टर साहब भी सो गए।
माया प्रायः नित्य ही महिला-संघ में जाने लगी। उन्मुक्त वायु में स्वच्छन्द सांस लेने लगी; पढ़ी-लिखी, उन्नतिशील कहाने वाली लेडियों-महिलाओं के संपर्क में आई; जितना पढ़ सकती थी, पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने लगी। उसने सुना---उन महामहिम महिलाओं में, जो सभाओं और जलसों में ठाठदार साड़ी धारण करके सभानेत्रियों के आसन को सुशोभित करती हैं,