लड़कियां ग्रेजुएट बन गईं। उनकी व्याह की उम्र ही बीत गई। अब वे ऑफिसों में, स्कूलों में, सिनेमा में अपने लिए काम की खोज में घूम रही हैं। इस काम से उनकी कितनी अप्रतिष्ठा हो रही है तथा कितना उनके चरित्र का नाश हो रहा है, इसे आंखवाले देख सकते हैं।'
मायादेवी अब तक चुप थीं। अब ज़रा जोश में आकर बोलीं-- 'तो आप यही चाहते हैं कि स्त्रियां पुरुषों की सदा गुलाम बनी रहें, उन्हीं पर आधारित रहें।'
'यदि थोड़ी देर के लिए यही मान लिया जाए श्रीमती मायादेवी, कि वे पुरुषों की गुलाम ही हैं तो दर-दर गुलामी की भीख मांगते फिरने से, एक पुरुष की गुलामी क्या बुरी है?'
'यदि वे कोई काम करती हैं, नौकरी करती हैं तो इसमें गुलामी क्या है?'
'अफसोस की बात तो यही है मायादेवी, कि सारा मामला रुपयों-पैसों पर आकर टिक जाता है। टीचर, डाक्टर बनकर या नौकरी करके वे जो पैदा कर सकती हैं--सिनेमा-स्टार बनकर लाखों पैदा कर सकती हैं--मोटर में शान से सैर कर सकती हैं। परन्तु सामाजिक जीवन का मापदण्ड रुपया-पैसा ही नहीं है। स्त्री-पुरुष की परस्पर की जो शारीरिक और आत्मिक भूख है, वही सबसे बड़ी चीज है। उसीकी मर्यादा में बंधकर हिन्दू गृहस्थ की स्थापना हुई है। वही हिन्दू गृहस्थ आज छिन्न-भिन्न किया जा रहा है।'
'पर यह हिन्दू गृहस्थ भी तो आर्थिक ही है। उसकी जड़ में तो रुपया-पैसा ही है?'
'कैसे?'
'अत्यन्त प्राचीन काल में, हिन्दुओं में गृहस्थ की मर्यादा न थी।
स्त्री-पुरुष उन्मुक्त थे। स्त्रियां स्वतन्त्र थीं। वे जब जिस पुरुष से