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अदल-बदल :: ८१
 

माया अब एक बालिका की मां, एक पति की पत्नी, एक घर की गृहिणी नहीं---एक आधुनिकतम स्वतन्त्र महिला थी। पुरुषों से, गृहस्थी की रूढ़ियों से, दरिद्र जीवन से सम्पूर्ण विद्रोह करने वाली। वह बात-बात पर पति से झगड़ा करने लगी, प्रभा को अकारण ही पीटने लगी। तनिक-सी भी बात मन के विपरीत होने पर तिनककर घर से चली जाती और दो-दो दिन गायब रहती। उसकी बहुत-सी सखी-सहेलियां हो गई थीं, बहुत-से अड्डे बन गए थे, जिनमें स्कूलों की मास्टरनियां, अध्यापिकाएं, विधवाएं, प्रौढ़ाएं और स्वतन्त्र जीवन का रस लेने वाली अन्य अनेक प्रकार की स्त्रियां थीं। उनमें प्रायः सबों ने स्त्रियों के उद्धार का व्रत ले रखा था।

इन सब बातों से अन्ततः एक दिन मास्टर साहब का समुद्र-सा गम्भीर हृदय भी विचलित हो गया। पत्नी के प्रति उत्पन्न रोष को वे यत्न करके भी न दबा सके। उनका धैर्य साथ छोड़ बैठा। उन्होंने आप-ही-आप बड़बड़ाकर कहा---'बड़ी आफत है, आजाद महिला-सघ की आजादी का तो इन पढ़ी-लिखी बेवकूफ स्त्रियों पर ऐसा गंदा प्रभाव हुआ है कि वे घर से बेघर होने मे ही अपनी प्रतिष्ठा समझती हैं।' उन्होंने एक बार चश्मे से घूरकर ज्वर में छटपटाती पुत्री को देखा।

बालिका ने अपने सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए पूछा---'बाबूजी, अम्मा आईं!'

'अब आती ही होंगी बेटी। लो, तुम यह दवा पी लो।'

'नहीं पीऊंगी।'

'पी लो बेटी, दवा पीने से बुखार उतर जाएगा।'

'अम्मा के हाथ से पीऊंगी।'

'बेटी, अभी मेरे हाथ से पी लो, पीछे अम्मा आकर पिला देगी।' "