विधान हमें प्राचीन इतिहास में देखने को मिलते हैं। परंतु ये नाम के स्वयंवर हैं। इनमें कन्या को पति को चुनने ज़रा भी स्वातन्त्र्य नहीं, पिता एक शर्त लगाता है और जो कोई भी इस शर्त को पूरी करे, वही कन्या को वर सकता है। जयचन्द की पुत्री संयोगिता ने स्वयम्वर में पिता का विरोध कर स्वाधीनता से काम लिया था। इसके लिए स्वयंवर भंग किया गया। कन्या को कैद होना पड़ा और लहू की नदियां बहीं।
हिन्दू कानून के अनुसार जब तक कन्या का विवाह नहीं हो जाता, कन्या के माता-पिता पर एक शनीचर सवार रहता है। ये लोग इस भांति वर ढूंढ़ते फिरते हैं जैसे भैंस खरीदने को लोग फिरा करते हैं। विवाह से प्रथम कन्या पराई चीज़ की भांति घर में पालन की जाती है। वह बहुत कम स्वतंत्रता पाती है। बचपन ही से उसे पति-घर की स्मृति दिलाकर त्रास दिया जाता है और विवाह होने पर फिर वह दुःखी-सुखी चाहे भी जिस तरह रहे, माता-पिता बेफ़िक्र हो जाते हैं। माता-पिता जब तक घर के अधिकारी रहते हैं, लड़की के प्रति ममता रहती है, पर भाई- भावज का राज्य होने पर फिर लड़की पिता के घर में एक बाहरी मेहमान के तौर पर आती है। उसे अपने पास से खर्च करना पड़ता है, वह आवश्यकता होने पर पति से खर्च मंगाती है, पति की अपेक्षा पिता-माता, भाई से अपनी आवश्यकता जताना संकोच की बात समझती है। बहरहाल, पति के जीते जी, पति के घर को छोड़ कर उसे कहीं ठिकाना नहीं है। बहुधा स्त्रियां पतिघर में सास से लड़कर बाप के घर जाने को धमकी देती हैं, परन्तु यह उनकी अत्यन्त असहायावस्था का द्योतक है। वे दुःखी तथा अपमानित होकर, लाचार होकर ही ऐसा करती हैं। यद्यपि पिता के घर वह अधिक पराई हैं, यह वह जानती हैं। अब आप सोच सकते हैं कि जो स्त्री पति-घर को पर-घर समझे तो समझिए कि