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पृष्ठ:अदल-बदल.djvu/८१

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अदल-बदल :: ८३
 

के पास आओ।'

मायादेवी ने फूत्कार कर कहा–--'तुम लोग मेरी जान मत खाओ।'

मास्टर अवाक रह गए। उन्हें ऐसे उत्तर की आशा न थी। उन्होंने कुछ रुककर कहा–--'तुम ऐसी हृदयहीन हो प्रभाकी मां!'

मायादेवी सिंहनी की भांति तड़प उठीं। उन्होंने कहा---'मैं जैसी हूं, उसे समझ लो---मेरी आंखें खुल गई हैं। मैं अपने अधिकारों को जान गई हूं। मैं भी आदमी हूं, जैसे तुम मर्द लोग हो। मुझे भी तुम मर्दों की भांति स्वतन्त्र रहने का अधिकार है। मैं तुम्हारे लिए बच्चे पैदा करने, उनका गू-मूत उठाने से इन्कार करती हूं। तुम्हारे सामने हाथ पसारने से इंकार करती हूं। मैं जाती है। तुम्हें बलपूर्वक मुझे अपने भाग्य से बांध रखने का कोई अधिकार नहीं है।'

वह तेजी से उठकर घर के बाहर चल दी। मास्टर साहब भौंचक मुंह बाए खड़े-के-खड़े रह गए। वे सोचने लगे---आखिर माया यह सब कैसे कह सकी। बिल्कुल ग्रामोफोन की-सी भाषा है, व्याख्यान के नपे-तुले शब्द, साफ-तीखी युक्ति-सुगठित भाषा। क्या उसने सत्य ही इन सब गम्भीर बातों पर, स्त्री-स्वातन्त्र्य पर सामाजिक जीवन के इस असाधारण स्त्री-विद्रोह पर पूरा-पूरा विचार कर लिया है? क्या वह जानती है कि इस मार्ग पर जाने से उस पर क्या-क्या जिम्मेदारियां आएंगी? मैं तो उसे जानता हूं, वह कमजोर दिमाग की स्त्री है, एक असहनशील पत्नी है, एक निर्मम मां है। वह इन सब बातों को समझ नहीं सकती। परन्तु वह यह सब कैसे कर सकी? घर त्यागने का साहस उसमें हो सकता है, यह उसकी दिमागी कमजोरी और असहनशीलतापूर्ण हृदय का परिणाम है, परन्तु उसके कारण इतने उच्च, इतने विशाल, इतने क्रांतिमय हैं, यह माया समझ नहीं सकती। वह