ऐसा भी वह न कर सकीं। अभी उसे घर छोड़े केवल कुछ क्षण ही व्यतीत हुए थे। पर इतने में ही वह ऐसा अनुभव करने लगी कि उसकी सारी ही गरिमा समाप्त हो चुकी है और अब वह पृथ्वी पर अकेली है। उसका मन गहरी उदासी से भर गया। सोच-विचार कर उसने मालतीदेवी के घर जाने का निश्चय किया, और वहीं जाने का तांगे वाले को आदेश दिया।
मालतीदेवी ने माया का स्वागत तो किया, पर माया ने तुरन्त ही ताड़ लिया कि उसका यों सिर पर आ पड़ना मालती को रुचिकर नहीं हुआ है।
रात माया ने बड़ी चिंता में काटी। प्रातःकाल मालती के परामर्श से मायादेवी ने वकील से मुलाकात की। वकील साहब का नाम नवनीतप्रसाद था। बातचीत के मीठे और फीस वसूलने में रूखे। कानून में अधूरे और बकवाद में पूरे। सब बातें सुनकर वकील साहब ने कहा---'हां, हां, आपके विचार बड़े कल्चर्ड हैं श्रीमती जी। अब पुरुषों की अधीनता में पिसने की क्या आवश्यकता है? फिर हिन्दू कोडबिल पास हो गया है। कानून सर्वथा आपके पक्ष में है। हां, फीस का सवाल है।'
'फीस आप जो चाहेंगे, वही मिल जाएगी। उसकी आप चिन्ता मत कीजिए, परन्तु आप पक्के तौर पर तलाक दिला दीजिए।'
'पक्के तौर पर ही श्रीमतीजी, पक्के तौर पर। मैं तो कच्चा काम करता ही नहीं। सारी अदालत यह बात जानती है। हां, फीस की बात है। फीस तो आप लाई होंगी?'
मायादेवी ने पचास रुपये का नोट वकील साहब की मेज पर रखते हुए कहा---'अभी यह लीजिए पचास रुपये। बाकी आप जो कहेंगे और दे दिए जाएंगे। मैं श्रीमती मालतीदेवी के कहने से आई हूं, आपकी फीस मारी नहीं जाएगी।'