बोधों के यथोचित योग को हम व्यक्ति या जन या आप कहते हैं। हमारी उपमा बाज़ार मे दी जा सकती है। सवेरे के बाज़ार की दशा शाम को और ही कुछ हो जाती है। बाज़ार तो वही रहता है, पर वहाँ आदमी और आ जाते है। इसी प्रकार हमारे बोधों का परिवर्तन होता रहता है। उन पर एक व्यक्तित्व उसी तरह रहता है, जैसे मनुष्य-जाति पर उसका एक जातित्व।
इंद्रियों से अनुस्यूत तंतुओं और भावों के संपर्क से मानसिक
क्रियाओं की उत्पत्ति होती है।
ग्रंथकार का आशय एक उदाहरण से और स्पष्ट हो जायगा। मन या व्यक्ति को एक स्वतंत्र राज्य समझी। जैसे स्वतंत्र राज्य में बहुत आदमी रहते हैं, पर उनका समुदाय मिलकर वह एक ही है, उसी प्रकार क्षणिक बोध अनेक हैं, पर उन सबका समुदाय मन एक ही है। राज्य के भिन्न-भिन्न विभाग और अधिकारी अनेक हैं। मानसिक बोधों के विभाग और दशाएँ भी अनेक हैं। जब तक राज्य के आधारभूत अधिकारी यथास्थित हैं, तब तक एक राज्य है। पर जब अधिकारियों में परिवर्तन होता है, तब वे उस राज्य को पूर्ववत् नहीं रहने देते। वे नए-नए नियम बनाते हैं, और वही राज्य और प्रकार का हो जाता है। इसी तरह मानसिक बोधों के समुदाय में परिवर्तन होने पर मनुष्य भिन्न व्यक्ति-सा प्रतीत होता है। जैसे राज्य में अधिकारियों का परिवर्तन प्रकृत अवस्था में न होकर विद्रोह या शत्रु के आक्रमण आदि होने पर होता है, वैसे ही मानसिक व्यक्ति