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सरोज-स्मृति
 

क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख न सका वे द्दग विपन्न;
अपने आँसूओं अतः विम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।
सोचा है नत हो बार बार—
"यह हिन्दी का स्नेहोपहार,
यह नहीं हार मेरी, भास्वर
यह रत्नहार—लोकोत्तर वर!"—
अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध
साहित्य कला कौशल प्रबुद्ध,
हैं दिये हुए मेरे प्रमाण
कुछ वहाँ, प्राप्ति को समाधान
पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त
गद्य में पद्य में समाभ्यस्त।—
देखें वे; हँसते हुए प्रवर,
जो रहे देखते सदा समर,
एक साथ जब शत घात घूर्ण
आते थे मुझ पर तुले तूर्ण,

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