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सरोज-स्मृति
 

प्राणों की प्राणों में दब कर
कहती लघु-लघु उसाँस में भर;
समझता हुआ मैं रहा देख,
हटती भी पथ पर दृष्टि टेक।
तू सवा सालकी जब कोमल,
पहचान रही ज्ञान में चपल
माँ का मुख, हो चुम्बित क्षण-क्षण,
भरती जीवन में नव जीवन,
वह चरित पूर्ण कर गई चली,
तू नानी की गोद जा पली।
सब किये वहीं कौतुक-विनोद
उस घर निशि-वासर भरे मोद;
खाई भाई की मार, विकल
रोई उत्पल-दल-द्दग-छलछल,
चुमकारा फिर उसने निहार,
फिर गङ्गा-तट-सैकत-विहार
करने को लेक़र साथ चला,
तू गहकर चली हाथ चपला;

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