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सरोज-स्मृति
 

खेलती हुई तू परी चपल,
मैं दूर स्थित प्रवास से चल
दो वर्ष बाद, होकर उत्सुक
देखने के लिये अपने मुख
था गया हुआ, बैठा बाहर
आँगन में फाटक के भीतर,
मोढ़े पर, ले कुण्डली हाथ
अपने जीवन की दीर्घ-गाथ।
पढ़ लिखे हुये शुभ दो विवाह
हँसता था, मन में बढ़ी चाह
खण्डित करने को भाग्य-अङ्क,
देखा भविष्य के प्रति अशङ्क।
इससे पहले आत्मीय स्वजन
सस्नेह कह चुके थे, जीवन
सुखमय होगा, विवाह कर लो
जो पढ़ी लिखी हो—सुन्दर हो।
आये ऐसे अनेक परिणय,
पर बिदा किया मैंने सविनय

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