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अनामिका
 

अन्त भी उसी गोद में शरण
ली, मूँदे द्दग वर महामरण!
मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल
युना वर्ष बाद जब हुई विकल,
दुःख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हो भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!

९, १०, ३५.
 

 

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