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अनामिका
 

प्रस्रवण झरते आनन्द के चतुर्दिक—
भरते अन्तर पुलकराशि से बार-बार
चक्राकार कलरव-तरङ्गों के मध्य में
उठी हुई ऊर्वशी-सी,
कम्पित प्रतनु-भार,
विस्तृत दिगन्त के पार प्रिय बद्ध-दृष्टि
निश्चल अरूप में।
हुआ रूप-दर्शन
जब कृतविद्य तुम मिले
विद्या को दृगों से,
मिला लावण्य ज्यों मूर्ति को मोहकर,—
शेफालिका को शुभ्र हीरक-सुमन-हार,—
शृङ्गार
शुचिदृष्टि मूक रस-सृष्टि को।
याद है, उषःकाल,—
प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में,
प्रथम पुलक फुल्ल चुम्बित वसन्त की
मञ्जरित लता पर,

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