पृष्ठ:अनामिका.pdf/१७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
राम की शक्ति पूजा
 

जैसे ओजस्वी शब्दों का जो था प्रभाव
उससे न इन्हे कुछ चाव, न हो कोई दुराव,
ज्यों हों वे शब्द मात्र,—मैत्री की समनुरक्ति,
पर जहाँ गहन भाव के ग्रहण की नहीं शक्ति।
कुछ क्षण तक रह कर मौन सहज निज कोमल स्वर
बोले रघुमणि—"मित्रवर, विजय होगी न समर;
यह नहीं रहा नर-बानर का राक्षण से रण,
उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण,
अन्याय जिधर हैं उधर शक्ति।" कहते छल-छल
हो गये नयन, कुछ-बूँद पुनः ढलके द्दगजल,
रुक गया कण्ठ, चमका लक्ष्मण-तेजः प्रचण्ड,
धँस गया धरा में कपि गह युग पद मसक दण्ड,
स्थिर जाम्बवान,—समझते हुए ज्यों सकल भाव,
व्याकुल सुग्रीव,—हुआ उर में ज्यों विषम घाव,
निश्चित-सा करते हुए विभीषण कार्य-क्रम,
मौन में रहा यो स्पन्दित वातावरण विषम।
निज सहज रूप में संयत हो जानकी-प्राण
बोले—"आया न समझ में यह दैवी विधान,

: १५७ :