पृष्ठ:अनामिका.pdf/७२

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दिल्ली उठा जहाँ शब्द घोर संसृति के शक्तिमान दस्युओं का अदमनीय, पुनः पुनः बर्बरता विजय पाती गई सभ्यता पर, संस्कृति पर, कॉपे सदारे अधर जहाँ रक्तधारा लख आरक्त हो सदैव। क्या यह वही देश है- यमुना-पुलिन से चल 'पृथ्वी' की चिता पर नारियों की महिमा उस सती संयोगिता ने किया आहूत जहाँ विजित स्वजातियों को आत्म-बलिदान से :- पढ़ो रे, पढ़ो रे पाठ, भारत के अविश्वस्त अवनत ललाट निज चिताभस्म का टीका लगाते हुए,- सुनते ही रहे खड़े भय से विवर्ण जहाँ अविश्वस्त संज्ञाहीन पतित आत्मविस्मृत नर ? बीत गये कितने काल,

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