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पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१५८

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अनासक्तियोग 1 दृष्ट्वा हि त्वां प्रव्यषितान्तरात्मा ति न विन्दामि शमं च विष्णो ॥२४॥ आकाशका स्पर्श करते, जगमगाते अनेक रंगोंवाले, खुले मुखवाले और विशाल तेजस्वी नेत्रवाले, आपको देखकर हे विष्णु ! मेरा हृदय व्याकुल हो उठा है और मैं धैर्य या शांति नहीं रख सकता। २४ दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि दृष्ट्वैव कालानलसग्निभानि । दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगनिवास ॥२५॥ प्रलयकालके अग्निके समान और विकराल दाढ़ों- वाला आपका मुख देखकर न मुझे दिशाएं जान पड़ती हैं, न शांति मिलती है। हे देवेश ! हे जगन्निवास ! प्रसन्न होइए। अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहेवावनिपालसंघः । भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासो सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ॥२६॥ वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि । केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु संदृश्यन्ते चुणितरुत्तमाङ्गः ॥२७॥ २७