पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सानो मायाव: भक्तियोय श्रीममवान बोले- नित्य ध्यान करते हुए, मुझमें मन लगाकर जो श्रद्धापूर्वक मेरी उपासना करता है उसे में श्रेष्ठ योगी मानता हूं। २ ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते । सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं. ध्रुवम् ॥ ३॥ संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ते प्राप्नुवन्ति मामेब सर्वभूतहिते रताः ।। ४ ।। सब इंद्रियोंको वशमें रखकर,सर्वत्र समत्वका पालन करके जो दृढ़, अचल, धीर,अचिंत्य, सर्वव्यापी, अव्यक्त, अवर्णनीय, अविनाशी स्वरूपकी उपासना करते हैं, वे सारे प्राणियोंके हितमें लगे हुए मुझे ही पाते हैं । ३-४ क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् । अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥५॥ जिनका चित्त अव्यक्तमें लगा हुआ है उन्हें कष्ट अधिक है। अव्यक्त गतिको देहधारी कष्टसे ही पा सकता है। टिप्पवी-देहधारी मनुष्य अमूर्त स्वरूपकी केवल कल्पना ही कर सकता है, पर उसके पास अमूर्त स्वरूप- के लिए एक भी निश्चयात्मक शब्द नहीं है, इसलिए उसे निषेधात्मक 'नेति' शब्दसे संतोष करना ठहरा। ५