२०४ जो सत्कार, मान और 'पूजाके लिए दंभपूर्वक होता है वह अस्थिर और अनिश्चित तप, राजस कहलाता है। १८ मूग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः । परस्योत्सादनार्थ वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥१९॥ जो तप कष्ट उठाकर, दुराग्रहपूर्वक अथवा दूसरेके नाशके लिए होता है वह तामस तप कहलाता १९ दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे । देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥२०॥ देना उचित है ऐसा समझकर, बदला मिलनेकी आशाके बिना, देश, काल और पात्रको देखकर जो दान होता है उसे सात्त्विक दान कहा है। २० यत्तु प्रत्युपकारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः । दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥२१॥ जो दान बदला मिलनेके लिए अथवा फलको लक्ष्यकर और दुःखके साथ दिया जाता है वह राजसी दान कहा गया है। २१ अदेशकाले यहानमपात्रेभ्यश्च दीयते । असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥२२॥ देश, काल और पात्रका विचार किये बिना, बिना
पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/२१८
दिखावट