सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/२२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

लाविलयोन यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते । कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥२७॥ यज्ञ, तप और दानमें दृढ़ताको भी सत् कहते हैं। तत्के निमित्त ही कर्म है, ऐसा संकल्प भी सत् कहलाता २७ टिप्पणी-उपरोक्त तीन श्लोकोंका भावार्थ यह हुआ कि प्रत्येक कर्म ईश्वरार्पण करके ही करना चाहिए, क्योंकि ॐ ही सत् है, सत्य है । उसे अर्पण किया हुआ ही फलता है। अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् । असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥२८॥ हे पार्थ! जो यज्ञ, दान, तप या दूसरा कार्य बिना श्रद्धाके होता है वह असत् कहलाता है । वह न तो यहांके कामका है, न परलोकके। २८ ॐ तत्सत् इति श्रीमद्भगवद्गीतारूपी उपनिषद अर्थात् ब्रह्म- विद्यांतर्गत योगशास्त्रके श्रीकृष्णार्जुनसंवादका श्रद्धात्रय- विभागयोग' नामक सत्रहवां अध्याय ।