मनातवियोग . लिए है। इसलिए इस श्लोकका अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है-जिसकी अहंता नष्ट हो गई है और जिसकी बुद्धिमें लेशमात्र भी मैल नहीं है, उसके लिए कह सकते हैं कि वह भले ही सारे जगतको मार डाले; परंतु जिसमें अहंता नहीं है उसे शरीर ही नहीं है। जिसकी बुद्धि विशुद्ध है वह त्रिकालदर्शी है। ऐसा पुरुष तो केवल एक भगवान है। वह करते हुए भी अकर्ता है, मारते हुए भी अहिंसक है। इससे मनुष्यके सामने तो एक न मारनेका और शिष्टाचार-शास्त्र --का ही मार्ग है। ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना । करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥१८॥ कर्मकी प्रेरणामें तीन तत्त्व विद्यमान हैं-ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता। कर्मके अंग तीन प्रकारके होते हैं-इंद्रियां, क्रिया और कर्ता । १८ टिप्पनी-इसमें विचार और आचारका समी- करण है। पहले मनुष्य कर्तव्य कर्म (ज्ञेय), उसकी विधि (ज्ञान) को जानता है-परिज्ञाता बनता है। इस कर्मप्रेरणाके प्रकारके बाद वह इंद्रियों (करण) द्वारा क्रियाका कर्ता बनता है। यह कर्म- संग्रह है।
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