२८ अनासक्तियोग योगस्थः : कुरु कर्माणि सङ्ग त्यक्त्वा धनजय । सिद्धघसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥४८॥ हे धनजय ! आसक्ति त्यागकर योगस्थ रहते हुए अर्थात् सफलता-निष्फलतामें समान भाव रखकर तू कर्म कर । समताका ही नाम योग है । ४८ दुरेण ह्यवर कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय। बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणा फलहेतव. ॥४९॥ हे धनंजय ! समत्वबुद्धिकी तुलनामे केवल कर्म बहुत तुच्छ है । तू समत्वबुद्धिका आश्रय ले। फलको हेतु बनानेवाले मनुष्य दयाके पात्र है। ४९ बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योग. कर्मसु कौशलम् ॥५०॥ बुद्धियुक्त अर्थात् समतावाले पुरुषको यहां पाप- पुण्यका स्पर्श नही होता, इसलिए तू समत्वके लिए प्रयत्न कर। समसा ही कार्यकुशलता है। ५० कर्मज बुद्धियुक्ता हि फल त्यक्त्वा मनीषिणः । जन्मबन्धविनिर्मुक्ता. पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥५१॥ क्योंकि समत्वबुद्धिवाले लोग कर्मसे उत्पन्न होने- वाले फलका त्याग करके जन्मबंधनसे मुक्त हो जाते हैं और निष्कलंकगति--मोक्षपद--पाते हैं। यदा ते मोहकलिल बद्धिर्व्यतितरिष्यति । तदा गन्तासि निर्वेद श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥५२॥
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