पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/५

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प्रस्तावना जैसे स्वामी प्रानद प्रादि मित्रोके प्रेमके वश होकर मैने सत्यके प्रयोगोभरके लिए आत्मकथाका लिखना प्रारंभ किया था वैसे गीताका अनुवाद भी। स्वामी आनदने असहयोगके जमाने में मुझसे कहा था, "पाप गीताका जो अर्थ करते है, वह अर्थ तभी समझमें आ सकता है जब आप एक बार समूची गीताका अनुवाद कर जाय और उसके ऊपर जो टीका करनी हो वह करें और हम वह सपूर्ण एक बार पढ जायं । फुटकर श्लोकोंमेंसे अहिंसादिका प्रतिपादन मुझे तो ठीक नही लगता है।" मुझे उनकी दलीलमे सार जान पडा । मैने जवाब दिया, "अवकाश मिलनेपर यह करूगा।" फिर में जेल गया । वहा तो गीताका अध्ययन कुछ अधिक गहराईसे करनेका मौका मिला । लोकमान्यका ज्ञानका भडार पढा । उन्होने ही पहले मुझे मराठी, हिंदी और गुजराती अनुवाद प्रेमपूर्वक भेजे थे और सिफारिश की थी कि मराठी न पढ़ सकू तो गुजराती अवश्य पढ़ । जेलके बाहर तो उसे न पढ पाया, पर जेलमें गुजराती अनुवाद पढा । इसे पढनेके बाद गीताके सबंधमें अधिक पढनेकी इच्छा हुई और गीतासबधी अनेक ग्रंथ उलट-पलटे । मुझे गीताका प्रथम परिचय एडविन मार्नल्ड के पद्य-अनुवादसे सन् १८८८-८६ में प्राप्त हुआ। उससे गीताका गुजराती अनुवाद पढनेकी तीव्र इच्छा हुई और जितने अनुवाद हाथ लगे उन्हे पढ़ गया; परंतु ऐसी पढाई मुझे अपना अनुवाद जनताके सामने रखनेका बिलकुल अधिकार नहीं देती । इसके सिवा मेरा संस्कृत-ज्ञान प्रस्प है, गुजरातीका ज्ञान विद्वत्ताके