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अप्सरा

लेता है। अपनी बुनियाद पर इमारत की तरह तुम्हें अटल रहना होगा,नही तो फिर अपनी स्थिति से ढह जाओगी, बह जाओगी।"

कनक के मन के होंठ काँपकर रह गए--"अपनी बुनियाद पर मैं इमारत की तरह अटल रहूँगी।"

( ४ )

अखबारों में बड़े-बड़े अक्षरों में सूचना निकली---

"कोहनूर थिएटर में"

शकुंतला! शकुंतला!! शकुंतला!!!

शकुंतला---मिस कनक

दुष्यंत--राजकुमार वर्मा एम० ए०

प्रशंसा में और भी बड़े-बड़े आकर्षक शब्द लिखे हुए थे। थिएटर के शौक़ीनों को हाथ बढ़ाकर स्वर्ग मिला। वे लोग थिएटरों का तमाम इतिहास कंठाग्र रखते थे, जितने ऐक्टर (अभिनेता) और मशहूर बड़ी-छोटी जितनी भी ऐक्टेस (अभिनेत्रियाँ) थीं, उन्हें सबके नाम मालूम थे, सबकी सूरतें पहचानते थे। पर यह मिस कनक अपरिचित थी। विज्ञापन के नीचे कनक की तारीफ़ भी खूब की गई थी। लोग टिकट खरीदने के लिये उतावले हो गए। टिकट-घर के सामने अपार भीड़ लग गई, जैसे आदमियों का सागर तरंगित हो रहा हो। एक-एक झोंके से बाढ़ के पानी की तरह वह जन-समुद्र इधर से उधर डोल उठता था। बाक्स, आर्चेस्टा, फर्स्ट क्लास में भी और और दिनों से ज्यादा भीड़ थी।

विजयपुर के कुवँर साहब भी उन दिनों कलकते की सैर कर रहे थे। इन्हें स्टेट से छः हजार मासिक जेब-खर्च के लिये मिलता था। वह सब नई रोशनी, नए फ़ैशन में फूँककर ताप लेते थे। आपने भी एक बाक्स किराएं कर लिया। थिएटर की मिसों की प्रायः आपकी कोठी में दावत होती थी, और तरह-तरह के तोहफ़े आप उनके मकान पहुँचा दिया करते थे। संगीत का आपको अज़हद शौक़ था। खुद भी गाते थे। पर आवाज जैसे ब्रह्मभोज के पश्चात् कराह रगड़ने की।