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अप्सरा

तथा झझरियोंदार डबल दरवाजे लगे हुए, दोनो किनारों पर मखमल की सुनहरी जालीदार झूलें चौथ के चाँद के आकार से पड़ी हुई; बीच मे छः हाथाको चौकोर करीब डेढ़ हाथ की ऊँची गट्टी, तकिए लगे हुए, उस पर अकेली बैठी हुई, रात आठ बजे के लगभंग, कनक सुर- बहार बजा रही है। मुख पर चिंता की एक रेखा स्पष्ट खिंची हुई उसके बाहरी सामान से चित्त बहलाने का हाल बयान कर रही है। नीचे लोगों की भीड़ जमा है। सब लोग कान लगाए हुए सुर-बहार सुन रहे हैं।

एक दूसरे कमरे से एक नौकर आया । कहा, माजी कहती हैं, कुछ गाने के लिये कहो । कनक ने सुन लिया। नौकर चला गया। कनक ने अपने नौकर से बाक्स हारमोनियम दे जाने के लिये कहा। हार- मोनियम ले आने पर उसने सुर-बहार बढ़ा दिया । नौकर उस पर गिलाफ चढ़ाने लगा । कनक दूसरे सप्तक के "सी" स्वर पर उँगली रख बेलो करने लगी। गाने से जी उघट रहा था, पर माता की आज्ञा थी, उसने गाया—

"प्यार करती हूँ अलि, इसलिये मुझे भी करते हैं वे प्यार,

बह गई हूँ अजान की ओर, इसलिये यह जाता संसार।

रुके नहीं धनि चरण घाट पर,

देखा मैंने भरण बाट पर,

टूट गए सब प्राट-ठाट घर,

छूट गया परिवार—— तभी सखि, करते हैं वे प्यार।

आप बही या बहा दिया था,

खिंची स्वयं या खींच लिया था,

नहीं याद कुछ कि क्या किया था,

हुई जीव या हार-

तभी री करते हैं वे.प्यार !