सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अप्सरा.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अप्सरा इसी तरह माग पार हा रहा था। आगे क्या होगा, उसकी मा उसके साथ क्यों नहीं आने पाई, इस तरह के प्रश्न उठकर भी मर जाते थे। जो एक निरंतर मरोर उसके हृदय में थी, उससे बड़ा कोई असर वे वहाँ डाल नहीं सकते थे। इसो समय उसकी तमाम शून्यता एक बार भर गई । हृदय से ऑखों तक पिचकारी की तरह स्लेह का रंग भर गया-उसने देखा, रास्ते के किनारे राजकुमार खड़ा है। हृदय उमड़कर फिर बैठ गया- अब ये मेरे नहीं हैं। _दर्शन के बाद ही मोटर एक भाग बढ़ गई। दूसरे, प्रेम के दबाव से वह कुछ कह भी नहीं सकी। राजकुमार खड़ा हुआ देखता रहा । कनक ने दो बार फिर-फिरकर देखा, राजकुमार को बड़ी लज्जा लगी, जैसे उसी के कलंक की मूर्ति सहस्रों इंगितों से कनक के द्वारा उसके अपयश की घोषणा कर रही हो। ___ राजकुमार बिलकुल सादी पोशाक में था। गाना सुनने के लिये जा रहा था, दूसरों के मत से; अपने मत से कनक को तारा से मिलाने। तारा ने जब से कहा कि गलती पर है, तब से कनक को पाने के लिये उसके दिल में फिर लालसा का अंकुर निकलने लगा है। पर फिर अपनी प्रतिज्ञा की तरफ देखकर वह हताश हो जाता है । "कनक से मुलाकात तो हुई, दो बार उसने फिर-फिरकर देखा भी। क्या वह अब भी मुझे चाहती है ? वह राजा साहब के यहाँ जा रही है, मुमकिन है, मुझे रोब दिखलाया हो, मैं क्या कहूँगा ? नः लौट जाऊँ, कह दूं कि मुझसे नहीं होगा। लौटकर कलकत्ते जायगी, तब जो बातचीत करना चाहें कर लीजिए." अनेक हर्ष और विषाद की तस्वीरों को देखता हुआ आशा और नैराश्य के भीतर से राजकुमार विजयपुर की ही तरफ जा रहा था। घर लौटने की इच्छा प्रबल बाधा की तरह मार्ग रोककर खड़ी हो जाती, पर भीतर न-जाने एक और कौन थी, जिसकी दृष्टि में उसके सब अपराधों के लिये क्षमा थी, और उस दृष्टि से उसे हिम्मत होती।