पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/२३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२० अभिधर्मकोश अन्त्य हेतु विपाकहेतु है क्योंकि सूची में सबके अन्त में यह अभिहित है। पूर्वफल, विपाकफल (२.५७), इस हेतु का फल है । ५६ बी. अधिपतिफल पूर्व का फल है । [२८८] पूर्व हेतु कारणहेतु है । अन्त्य फल इससे निवृत होता है । इस फल को 'अधिपज' या 'आधिपत' कहते हैं क्योंकि यह अधिपतिफल है (२.५८ सी- डी) । कारणहेतु से अधिपति का प्रादुर्भाव होता है । किन्तु यह कहा जायगा कि अनावरणभावमात्रावस्थान (२.५० ए) ही कारणहेतु है । इसको 'अधिपति' कैसे मान सकते हैं ? कारणहेतु या तो 'उपेक्षक' है--और उस अवस्था में इसे अधिपति अवधारण करते हैं क्योंकि इसका अनावरणभाव है -~-या 'कारक' है और इसे अधिपति मानते हैं क्योंकि इसका प्रधानभाव, जनकभाव और अंगीभाव है । यथा दस आयतन (रूपादि और चक्षुरादि) पंच- विज्ञानकाय की उत्पत्ति में अधिपति हैं; सत्वों के समुदित कर्म का भाजनलोक' के प्रति अंगीभाव है । श्रोत्र का चक्षुर्विज्ञान की उत्पत्ति में पारंपर्येण आधिपत्य है क्योंकि श्रवण कर द्रष्टुः कामना की उत्पत्ति होती है । एवमादि योजना कीजिये (२.५० ए देखिये)। ५६ सी-डी. निष्यन्द सभाग और सर्वत्रगहेतु का फल है । निष्यन्दफल सभागहेतु (२.५२) और सर्वत्रगहेतु (२.५४) से निर्वृत्त होता है : क्योंकि इन दो हेतुओं का फल स्वहेतु के सदृश है (२.५७ सी; ४.८५) । ५६ डी. पौरुष दो हेतुओं का फल है । [२८९] सहभूहेतु (२.५० बी) और संप्रयुक्तकहेतु (२.५३ सी) का फल पौरुष कहलाता है अर्थात् पुरुषकार का फल । पुरुषकार पुरुषभाव से व्यतिरिक्त नहीं है क्योंकि कर्म कर्मवान् से अन्य नहीं है । अतः पुरु- षकारफल को 'पौरुष' कह सकते हैं। 'पुरुषकार' का क्या अर्थ है ? जिस धर्म का जो कारित्र (क्रिया, कर्मन्)है वह उसका पुरुषकार कहलाता है क्योंकि वह पुरुषकार के सदृश है । यथा लोक में एक ओषधि को काकजंघा कहते हैं क्योंकि यह काकजंघा के आकार की होती है; शूर को मत्त हस्ती कहते हैं क्योंकि वह मत्त हस्ती के सदृश है । १ पूर्वस्याधिपजं फलम् अथवा पूर्वस्याधिपतं फलम् [व्या २२१.२९,३३] (पाणिनि ४.१.८५) -४.८५ ए-बी. ११० ए भाजनलोक (३.४५, ४.१) सत्व समुदाय के कुशल-अकुशल कर्मों से जनित है। यह अव्या- कृत है किन्तु यह विपाक नहीं है क्योंकि विपाक एक 'सत्वाख्य' धर्म (पृ. २९०) है। अतः यह कारणहेतुभूत कर्मों का अधिपतिफल है। [व्या २२२.१५] १ सभागसर्वत्रगयौनिष्यन्दः (व्या २२२.२२) पौरुषं द्वयोः ॥ [व्या २२२.२५) 1