पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३३२

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२ अभिधर्मकोश उत्पन्न होते हैं किन्तु यह तभी होता है जब आश्रयभूत आत्मा होता है। दोनों पर्याय मिलकर इन व्याख्यानों को अयुक्त सिद्ध करते हैं : "अविद्या प्रत्ययवश संस्कार होते हैं [अर्थात्- केवल अविद्या के होने पर..........इस प्रकार केवल ( = आत्मरहित) महान् दुःखस्कन्ध का समुदय होता है।" ४. आचार्यों का मत है कि प्रथम पर्याय अप्रहाण-ज्ञापनार्थ है : "अविद्या के होने [८३] पर, अप्रहीण होने पर, संस्कार होते हैं, प्रहीण नहीं होते" और द्वितीय पर्याय उत्पत्ति- ज्ञापनार्थ है: “अविद्या के उत्पाद से संस्कार उत्पन्न होते हैं।" ५. एक दूसरे मत के अनुसार, प्रथम पर्याय स्थिति-संदर्शनार्थ है, द्वितीय पर्याय उत्पत्ति- संदर्शनार्थ है : “यावत् कारणस्रोत है तावत् कार्यस्रोत है। कारण के ही उत्पाद से कार्य उत्पन्न होता है।" हम कहेंगे कि यहाँ उत्पाद अधिकृत है। वास्तव में भगवत् कहते हैं कि "मैं तुमको प्रतीत्यसमुत्पाद की देशना दूंगा।" यहाँ स्थिति-वचन का क्या प्रसंग है ? पुनः भगवत् की देशना का भिन्न क्रम किस प्रयोजन से होगा-पूर्व स्थिति, पश्चात् उत्पत्ति ? [इन्हीं आचार्य का] पुनाख्यान-'उसके होने पर यह होता है' इस पर्याय का अर्थ यह है : “कार्य के होने पर हेतु का विनाश होता है।" किन्तु यह मत विचारिये कि कार्य अहेतुक है : "उसके उत्पाद यह उत्पन्न होता है।" किन्तु यदि ऐसा होता तो भगवत् की उक्ति इस प्रकार होती : “उसके होने पर यह नहीं होता" और वह कार्य के उत्पाद का पूर्व निर्देश करते। एक बार कार्य के उत्पन्न होने पर हम कह सकते हैं कि “कार्य के उत्पन्न होने पर हेतु और नहीं होता"। -यदि सून का वह अर्थ है जो इन आचार्य को इष्ट है तो यह कैसे है कि भगवत् प्रतीत्यसमुत्पाद का निर्देश करना चाहते हैं किन्तु पहले हेतु के विनाश का निर्देश करते हैं ? अविद्याप्रत्ययवश संस्कार कैसे होते हैं ? जातिप्रत्ययवश जरामरण कैसे है ?'-हम इस प्रश्न का संक्षेप में उत्तर देते हैं। २ १ २ ३ ४ अर्थात् पूर्वाचार्यः आचार्या इति पूर्वाचार्याः [ध्या २९८.१८] अप्रहाणज्ञापनार्थम्, उत्पत्तिज्ञापनार्थम् [व्या २९८.१९] व्याख्या के अनुसार यह श्रीलाभ का मत है। [व्या २९८.२४ 'श्रीलात'] स्थित्युत्पत्तिसंदर्शन च्या २९८.२३) पुनराह--व्याख्या के अनुसार : स एष भदन्त श्रीलाभः [व्या २९८. ३२]--साएको की टिप्पणी: स्थविर। सूत्र कहता है : जातिप्रत्यया जरामरणशोकपरिदेवदुःखदौर्मनस्योपायासाः सम्भवन्ति (पाठभेद है)। [भ्या २९९.२]. शोक......उपायास 'जरामरण में संग्रहीत हैं और अंगान्तर नहीं हैं। यह सत्त्वासत्व- संख्यात विषय के विविध परिणाम से और आत्मभाव के परिणाम से होते हैं। हम इनका लक्षण देते : हैं शोक : बोर्मनस्पसंप्रयुक्तो वितर्कः, परिदेव %3D शोकसमुस्थित ५