पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०२ अमर अमिलापा लगी, देखें-श्रय क्या रंग खिलता है। गृहिणी. ने चम्पा से , "क्यों चम्पा-तुझे भले-बुरे का कुछ ज्ञान भी है ?" चम्पा ने कहा-"क्या हुथा चाची, मैंने क्या किया है ?" "तुने कुछ फिया ही नहीं? अच्छा, तू मो शुभ-सायत के दिन राँठ को ले थाई-यह तेरी कैसी अनन्न है ?" चम्पा चुप! भगवती मानो धरती में गढ़ गई। इतने में एक वृद्धा बोली-"रांड को यह सिंगार? भाग लगे इस कलयुग में" दूसरी ने कहा-"ऐसी लुगाई को दूसरा खसम करते क्या लगेगा?" तीसरी वोली-"नव इतना होगया है, तब वह मी होगा। बीवी-अव किसी की मर्जाद नहीं रही!" चम्पा अब तक चुप थी, अब उसने साहस करके कहा- "चाची-रांडों के जी नहीं होता? मैं तो उसे जबर्दस्ती ले आई थी, वह तो आती भी नहीं थी।" गृहिणी ने और रिसाकर कहा-"कौन अपनी गोनिहाई बहू पर रौढ की परछाई पड़ने देगी ? अपनी शुभ सभी चाहते है। तू इतनी बड़ी तो होगई, पर समझ कुछ भी नहीं थाई।" चम्पा कुछ कहा ही चाहती थी, कि इतने में गृह-स्वामी ने घर में प्रवेश करके कहा-"क्या चकचक है ?"